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पद 10 - 12 - 2015

लाड़ली कब मो को अपनैहो।शीतल सुखद अभय कोमल कर,कब मो शीश फिरैहों।मो दिस हित की दृष्टि फेर, कछु प्यार भरी बतरैहों।हा लाडली!हा स्वामिनी!हा श्री राधे! कब मो को अपनैहो

प्यारी हौं तो चरनन रज सौं नहाउँ। देहुँ बुहारी नव निकुंज की, अपनो भाग सिराऊं।। अंकित रज मेँ पद पंकज छवि,नमन करत सचुपाऊं। सुहृदय स्वामिनी कृपा कीजो,राधे श्री राधे गाऊँ।।

1112दर-दर भटक,नीच मैं, पटक-पटककर सिर, हो निपट निराश।धक्कों से घबराकर,अब आया चरणों में करने वास। कितनी चोटें सही,गड़े कितने पग कंकड़- काँटे-शूल।मुर्ख कष्ट क्लेशों में खोया जीवन, तुम्हें भुला सुखमूल। होकर विमुख दया सागर से, दुर्गंधित जालों के बीच।पड़ा सड़ रहा भाग्यहीन मैं फिर-अपराधी पामर नीच। रहा अभी तक वंचित मैं इन पावन चरणों से मतिहीन। वंचित हो अब सब अग-जग से हो असहाय अंत में दीन। आ पंहुचा मैं दुखी आर्त अति दीनबंधु के निर्भय द्वार। चरण-शरण दो निज स्वभाव वश सहज मुझे ,हे करुणासागर। राधे- राधे

श्री श्यामा जू🌿श्यामा जू! सेवा सुख कब पाऊँ।कोटि जन्म बीते प्रिया यों ही,भटक भटक मैं वयस बिताऊँ।करहु कृपा वृषभानुनंदिनी पद-सरोज की सन्निधि पाऊँ।मेरो कौन सगौ या जग में,जिसको अपनी व्यथा सुनाऊँ।श्यामा जू तुम्हारी होकर भी,तब कृपा को क्यूँ बिलखाऊँ।तब पद-पंकज सम्पति मेरी,ताहि में नित चित्त लगाऊँ।चन्द्रानन की रहूँ चकोरी,भ्रमरी बन चरनन गुन गाऊँ।सुहृद स्वामिनी कृपा करिहौ,हौं तेरी चेरी कहलाऊँ।जय श्री राधे

बरसाना के रस की महिमा ना जाने हर कोये।यहाँ तो रसिको के पीछे डोले ठाकुर जी रोये रोये ।हर गली हर चौक हर चोराहे पर राधे राधे होये।

वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवन्दितम्।
यत्कीर्तिकीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम्।।

मैं श्रीराधाके उन चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा वन्दित हैं तथा जिनकी कीर्ति के कीर्तनसे तीनों भुवन पवित्र हो जाते हैं।

{ कौंन रँग री माई ! रँगी है चूँनरी, दृष्टि नहीं ठहराति |
शोभा के सागर लहरि परैं मानौं, ऐसें तन फहराति ||
ता मधि दमकति नगन के भूषन, उलझि-उलझि आवै बाहिर कांति |
वृन्दावन हित रूप कौ गहर अति, पिय-दृष्टि गोता खात || }

{ प्यारी जू की फरगुल यौं छबि पावति, उपमा दैंन अरवरति हियौ है |
कनक लता पर बैठ्यौ कलाधर, तापै रवि भोर उदोत कियौ है ||
अदभुत समय मिलाप किधौं यह, परम प्रीत सौं ढ़ाँपि लियौ है |
वृन्दावन हित रूप मयूषनि, किधौं तन तें कढ़ि ओप दियौ है || }
********************************!! जय जय श्री हरिवंश !!********************************

सखी री मैं तो बरसाना आऊ।और गहवरवन में डुबकी लगाऊ।सन्तों की रज को मस्तक लगाऊ।प्यारी जू को प्यारो प्यारो लाड़ लडाऊ।अरी हा अब बरसाना रज में नहाउ।श्री राधा ।

{ ललक भरे परे न रहै |
लष गुन चाइ दाइ भाइनि बढ़े अंग अंग रति रंग नहे ||
लाड़ गरूर घूट पानिप तन अरबीले गुन गरब लहे |
चोषा चोषी चौंप चौकसी 'नागरीदास' इक तक निबहे || }

{ राजी सिंगार-निकुंज महा छबि, राजी भये दोउ प्राण पियारे |
कुंजनि-मंडल में मणि-मंडल, शोभा लखी सब द्वारहिं-द्वारे ||
भीतर दर-दालान लता-तरु, आँगन रूप अनंत निहारे |
मंडप तर मंडप मंडल पै, आय बिराजे हैं लाल हमारे || }
************************************!! जय जय श्री हरिवंश !!

{ बिराजत वृन्दाविपिनि बिहारु |
यह सुख नैननि कहि न परैं, सखि नैननि कौ आहारु ||
गौर स्याम शोभा सागर कौ, नाहिन पाराबारु |
बलि-बलि कहत, सहत पिय हिय पर, पीन पयोधर भारु ||
सनमुख सैन सरन सहि सुन्दर, कीन्हे भार सुमारु |
सुधासिंधू मुख में बरषावति, वरबिधु अरुण उदारु ||
भुजनि भेंटि दुःख मेंटि बिरह कौ, विहसत पुरयौ विडारु |
खर-नख कुंदकली दसननि पहँ, छलवल नहीं उबारु || }
*******************************!! जय जय श्री हरिवंश

कान्हा कूं याद करै हिय राधे, दृग अंसुवन अरुझाये,                                                        बिसरि गयो निज मान सखी को क्योंकर है बिरमाये,                                                        बैठि कदम्ब छांह मन कोसत हरि ने है बिसराये,                                                             कहै अनजान सलोनी सूरत भगतन हरस बढाये.

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राधे राधे

ये नहीं है कभी भी रूदन के लिये
अश्रु हैं ये श्री हरि के नमन के लिये
हो! खबरदार इनको लुटाना न तुम
व्यर्थ संसार के मान धन के लिये।

दीनता लाने पायें न आँसू तेरे
ये हैं आते तेरे उन्नयन के लिये
ये दुखाने न आये हैं किंचित तुम्हें
उपस्थित हैं ये नवसृजन के लिये।

देखने कोई पाये न आँसू तेरे
ये हैं अमृत आचमन के लिये
छिपा गर न पायो कभी तुम इन्हें
दो छलकने सदा उस परम के लिये।

हरि ने आँका भक्तों की हर बूँद को
हल्का त्रैलोक्य ठहरा वजन के लिये
क्यों न अर्पण किया तुमने इस बिंदु को
ऐ कृपण! बन मीरा सम मिलन के लिये।

करके देखो अब तुम साधना ये नई
क्षीर-सागर है ये प्रभु-शयन के लिये
याद कर लो परमहंस चैतन्य को
नैन-निर्झर हुये प्रेम-धन के लिये।

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