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पहला अधिकार कृष्ण भोग का श्री जी का ही है

जब भरतजी ने दशरथजी का अंतिम संस्कार कर दिया तब गुरु वशिष्ठ जी ने बोले - भरत! राजा ने राजपद तुमको दिया है पिता का वचन तुम्हे सत्य करना चाहिये. राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे, इसलिए पिता के वचनों को सत्य करो राजा की आज्ञा सिर चढाकर पालन करो.
जो अनुचित और उचित विचार छोड़कर पिता की आज्ञा का पालन करते है वे यहाँ सुख और सुयश और अंत में स्वर्ग में निवास करते है.इसलिए तुम राज्य करो.श्रीरामचन्द्र के लौट आने पर राज्य उन्हें सौप देना और उनकी सेवा करना.
सभी मंत्रियो ने,कौसल्या जी सभी ने भरतजी को समझाया, भरतजी कहते है - गुरुदेव! आप कैसी धर्म भ्रष्ट करने वाली बात कह रहे है, मै राज्य ले लूँ, फिर जब श्रीराम आये तो मै राज्य उन्हें दे दूँ,इसका तो अर्थ यह हुआ कि पहले मै भोग लूँ फिर अपना भोग हुआ, जूठा राज्य श्रीराम को दे दूँ. मेरा कल्याण तो सीतापति राम जी की चाकरी में है.और भगवान को अमनिया का भोग लगता है भक्त तो प्रसाद पता है.भोगने वाले तो श्रीराम है,उनका भोग हुआ भोग लगाया हुआ ही केवल मै पा सकता हूँ.
भगवान को अमनिया का भोग लगता है,अर्थात जिसे अभी किसी और ने नही खाया,जब भगवान आरोग लेते है तब उनके स्वीकार कर लेने के बाद वह प्रसाद हो जाता है,और भक्त तो केवल प्रसाद ही खाता है अमनिया खाने का अधिकार भक्त को नहीं है.
एक बार श्यामसुंदर सुंदर श्रृंगार करके, सुन्दर पीताम्बर पहनकर,रंगीन धातुओ से भांति-भांति के श्रीअंग पर आकृतियाँ बनाकर,खूब सजधज कर निकुज में गए तभी एक "किंकरी सखी" उस निकुंज में विराजमान थी.राधा रानी जी की सेवा में अनेक प्रकार की सखियाँ है "किंकरी", "मंजरी", और "सहचरी" ये सब सखियों के यूथ है.
तो जैसे ही कृष्ण ने उस गोपी को देखा तो उसके पास आये भगवान का अभिप्राय यही था कि मैंने इतना सुन्दर श्रृंगार किया,गोपी मेरे इस रूप को देखे.जैसे ही पास गए तो गोपी श्री कृष्ण को देखकर एक हाथ का घूँघट निकाल लेती है,और कहती है - खबरदार! श्यामसुंदर! जो मेरे पास आये.मेरे धर्म को भ्रष्ट मत करो.
भगवान को बड़ा आश्चर्य हुआ,बोले - गोपी! ये तुम क्या कह रही हो? सभी धर्मो का,कर्मो का,फल,सार मेरा दर्शन है,योगी यति हजारों वर्ष तप, ध्यान करते है,फिर भी मै उनको दर्शन तो क्या, ध्यान में भी नहीं आता और मै तुम्हे स्वयं चलकर दर्शन कराने आ गया, तो तुम कहती हो कि मेरा धर्म भ्रष्ट हो?
गोपी बोली - देखो श्यामसुंदर! तुम हमारे आराध्य नहीं हो, हमारी आराध्या राधारानीजी है और जब तक किसी भी चीज का भोग उन्हें नहीं लगता तब तक वह वस्तु हम स्वीकार नहीं कर सकते, क्योकि हम "अमनिया" नहीं खाते, इसलिए पहले आप राधारानी के पास जाओ, जब वे आपके इस रूपामृत का पान कर लेगी,तब आप प्रसाद स्वरुप हो जायेगे, तब हम आपके रूप अमृत के दर्शन के अधिकारी हो जायेगे. अभी राधा रानी जी ने आपके रूप के दर्शन किये नहीं,फिर हम कैसे कर सकते है.सेवक तो प्रसाद ही पाता है.

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