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दास्य भक्ति सभी भावो में निहित है

"दास्य-भक्ति" के परम-आदर्श श्री हनुमान जी महाराज हैं....!!

श्रीमद्भागवत में श्री हनुमान जी को परम-भागवत (अर्थात सर्वश्रेष्ठ भक्त) कहा गया है।

श्री हनुमान जी महाराज स्वयं भगवान शिव के अवतार हैं, और शिव जी को भी परम-वैष्णव कहा गया है, अतः भक्ति में हनुमान जी महाराज और शिव जी दोनों हीं उच्चतम आदर्श हैं।

श्री रामचरितमानस में हनुमान जी महाराज प्रभु से अनपायनी भक्ति का वर मांगते हैं।

चौ॰-
नाथ भगति अति सुखदायनी।
                 देहु कृपा करि अनपायनी॥

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
                एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
(श्रीरामचरितमानस ५.३४.१)

भावार्थ:- हे नाथ, मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए।

हनुमानजी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी, तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥

उससे पहले हनुमान जी को सीता माँ की कृपा मिल चुकी थी।
उन्हें पहले सीता जी अनुपम वरदान मिल चूका
था।

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
                 करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
(श्री रामचरितमानस ५.१७.२)

भावार्थ:- हे पुत्र, तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ।
श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें, वो तुमसे बहुत छोह (प्रेम) करें।

अतः साधक सीता जी की कृपा की छाया में रहते हुए श्री हनुमान जी महाराज का अनुसरण कर प्रभु श्री राम की "अनपायनी भक्ति" को प्राप्त कर सकता है।

भक्ति का भाव स्वरुप जैसा भी हो सब में सीता जी की कृपा जरुरी है, सभी भावों में प्रभु के प्रति सेवा का भाव अर्थात "दास्य भक्ति" का तत्व हमेशा मौजूद होता है।

गोपियाँ प्रेमा-भक्ति थी पर वो श्री कृष्ण-विरह में स्वयं को कृष्ण कहने लगी कि "मैं हीं कृष्ण हूँ।"

असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः॥ (श्रीमद्भागवत १०.३०.३)

इस तरह यहाँ गोपियों का प्रेम पहले से भली-भाँती दास्य-भाव से पोषित न होने के कारन उनमे अद्वैत-भाव और अहंकार की झलक दिख जाती है, अद्वैतवाद में 'सोऽहम्' न्यायतः परमार्थिक नहीं है, यह तो बस आवेश मात्र है।

तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत॥
(श्रीमद्भागवत १०.२९.४८)

प्रभु गोपियों में अहंकार देख कर स्वयं को अंतर्ध्यान कर लेते हैं और गोपियों को बहुत देर तक भान भी नहीं होता कि प्रभु अंतर्ध्यान हो गए हैं।

प्रभु के अंतर्ध्यान होने पे गोपियों को अपनी गलती का आभास होता है, गोपियों को बहुत दुःख होता है, वो बहुत तरह से विलाप करके रुदन करती हैं, और सभी श्री कृष्ण से प्रगट होने के लिए बहुत विनती करती हैं।

और जब तक गोपियाँ वहाँ स्वयं को अशुल्क-दासिका कहकर दास्य-भाव में भगवान श्री कृष्ण की शरणागति ग्रहण नहीं कि तब तक भगवान श्री
कृष्ण प्रकट नहीं हुए, अतः दास्य-भाव सभी भावों में अन्तर्निहित है।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥
(श्रीमद्भागवत १०.३१.२)

गोपियाँ गोपी गीत में कहती हैं:-

"हे नाथ! हम लोग आपकी अशुल्क दासिका हैं, फिर भी आप हमें मार हीं रहे हो (नेत्रो से दूर करके स्वयं को), क्या अस्त्रों से मारने से हीं वध होता है?"

इसलिए भक्तों को प्रेम-भाव में सावधानी भी बरतनी पड़ती है, और इसे भली-भांति दास्य भाव से पोषित करना चाहिए।

"दास्य-भक्ति" के परम-आदर्श श्री हनुमान जी महाराज हैं।

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