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प्रेम रस और प्रियाप्रितम और प्रेम में मान पर वार्ता ।

प्रेम रस और प्रियाप्रितम और प्रेम में मान पर वार्ता ।

नित्य प्रतिपल उनका संग अनुभूत् करना ।
निःशब्द हो आँसू बहाना

हवाओं की छुअन में उनका स्पर्श
ज़र्रे ज़र्रे में उनका नूर

शायर प्रेमगीत सब सच है
सब होता है । पर प्रेम न हो
तो अनुभूत् नही हो पाता

प्रेमी पेड़ पौधो से बातें करता है । और उत्तर भी मिलते है

प्रकृति प्रेमी को और भर देती है । लगता है जैसे मेहबूब ही तरह तरह से रिझा रहे हो

प्रेमी के लिए एक एक कण अपने पिया का प्रसाद है ।

और हर साँस में उनका आगोश । क्योंकि हवा बन पिया ही भीतर उतरते है । जो जीना न चाहे उसे बनाये रखते है

Q- Radha rani ka divy prem kya hai

अप्राकृत प्रेम है उनका
प्रकृति से परे ।
तत्सुख ही लक्ष्य है । जबकि जगत में जीव में स्वसुख ही हो पाता है ।
प्राकृत और अप्राकृत का भेद पहले सामने हो तब समझ आयेगा दिव्य प्रेम ।
प्राकृत मायाबद्ध । जड़ता से । लौकिक ।
अप्राकृत माया मुक्त । चेतन । पारलौकिक । परन्तु लीलामय ।
यहाँ माया ही लीला में रूपांतरित हो जाती है । ईश्वर की आह्लादिनी के रूप में । प्राकृत में महामाया -और अप्राकृत में आह्लादिनी के रूप में ....
जगत का प्रेम काम की परिणीति चाहता है । काम में स्वसुख है तत् सुख नही । जबकि प्रेम तत् सुख ही चाहता है । दिव्य प्रेम में शरीर की अनुभूतियाँ तो है परन्तु अप्राकृत । वहाँ काम दिखने में आये तो भी काम नही । बल्कि जगत में भी काम की ऊर्जा  ही प्रेम में रूपांतरित होती है । जीव भोगी है ।
वो ईश्वर को भी भोगी ही विचारता है । प्रेमी और ज्ञानी मानते है और जानते है ईश्वर भोक्ता है और (जीव-जगत्) समस्त भोग्य वस्तु मात्र । ईश्वर की माया से ही जीव को भी समस्त भोग की उत्पति प्राप्ति अनुभूति आदि होती है । माया मुक्ति पर भोगों की निवृति और समस्त भोगों पर परम् का ही अधिकार दिखाई देता है ।
देह प्राकृत है
और आत्मा अप्राकृत ।अतः अन्तस् की पहुँच अप्राकृत जगत में सम्भव है - नित्य लिलाराज्य में । चिन्मय सिद्ध देह के रूप में ।
वर्तमान जगत केवल जीव् हेतु है ।ईश्वरीय जगत अति विशिष्ट और दिव्य है । अतः वहाँ की रसचर्चा आदि ,  प्राकृत जगत अनुभुव नहीँ कर सकता । परन्तु आप देखेंगे , यहाँ तो सभी ईश्वर को प्राकृत करने में लगे है । कोई स्वयं को अप्राकृत नहीँ करना चाहता । जीव की बुद्धि इतनी स्थूल है कि वो ईश्वर को भी स्थूल बना लेता है । दिव्य चिन्मय को स्वयं सा ।।। यहाँ ईश्वर पूरी तरह जैसा जीव चाहे होने को तत्पर है । जैसे पिता या दादा परिवार में बालक के सुख के लिए हाथी घोडा बन जाएं । प्रेम और करुणा हेतु जैसा जीव चाहे वैसा दर्शन सुलभ है । तथास्तु कहना ही उन्हें भाता है । अपना भाव वें जबरन किसी पर नहीं डालते । बस जैसा तुम चाहो ।
श्री राधा कृष्ण की शक्ति है सो उन्हें रसमय तृप्ति केवल वें ही दे सकती है । प्राकृत जगत हो या अप्राकृत ।  क्योंकि वहाँ (जै जै मेव)प्रेम का ज्वालामुखी ही फूटता है । उन्हें प्रेम का महासागर ही चाहिए । बूँद दो बूँद के जीव के बनावटी प्रेम से उनकी तृप्ति नही । युगल का प्रेम ऐसा है कि  उनके भीतर के प्रेम के  संकल्प से सृष्टियां हो गई । विचार करें कितना विशाल प्रेम है ।
प्रेम त्याग तत्सुख चाहता है ।
और हम सभी रह रह कर स्व की ही भावना रखते है ।
होना तो चाहिए कि अग़र हम उनके हेतु है तो ही हमे उनकी चरण रति  मिले । अन्यथा तब भी अपने कलुष को जान और मान उनकी सेवा ही होवें । प्रेमी अपने प्रेमास्पद की स्वीकृति हो या न हो प्रेम करता ही है ।

अगर चरण रति न मिली तो पात्रता नही । पात्रता ही नही तो विनय कर स्वयं को यें कहना कि लाख बुराई है पर फिर भी आप करुणामय हो । स्वीकार कर लो । तो यहाँ उनकी कितनी करुणा है । उनकी महानता है । अपना प्रेम होवें तो अपने मैल को हटा कर हम प्रियतम् से मिले ।
हमें मलीनता भी नहीँ छोड़नी होती और सन्निधि भी चाहिए । अगर उनके सौंदर्य और कोमलता का आभास हो और नित्य ध्यान भी हो तो मन विचलित होगा । कि किस तरह वहां अपनी वासना और मलीनता दुर्गन्ध सहित हम जा कर उन्हें कष्ट दे रहे है । तब भी उनका प्रेम कि ऐसा होने पर भी हमारी वांछा हेतु वें स्वीकार कर लेते है ।
प्रेम है तो उनसा होना ही है अब हम उनसा होना चाहने का मन भी करें और मलीनता से निर्मलता की यात्रा करें तो उन्हें कितना सुख मिलेगा । वरन् उन्हें प्रेम है तो निर्मल तो वें कर ही देगें भले हम लाख विकारों से घिरे हो ।
उनसा होना ही होगा ।
अब हम उनसा होना चाहे । हमारा प्रेम ।
वें अपना सा कर लें उनका प्रेम ।
यहाँ स्मरण रहे हम केवल चाहेँगे , चाहत को पूरा करना उनकी कृपा । ।
उनके कोमल श्री अंग का ध्यान इसलिए ही किया जाता है कि किंचित् कोमल्य  के अंकुर हममें फुट  पड़े ।
जैसा ध्यान होगा वैसा ही स्वरूप होने लगेगा ।
नाम भी इसलिए ही होता है
नाम संग नामी का ध्यान हो और
उसी नाम रूप सेअभिन्नता हो जाए
जैसे कुंजबिहारी श्रीहरिदास ।
यहाँ कुञ्ज संग कुँज बिहारी जी
प्रिया जु और सहचरी संग चाहिए ।
कुँज हो कुंजबिहारी और प्रिया और सहचरी नही तो लीला न होगी ।
प्रिया जी की परम् सहचरी की अनुगता बन लीलारस पीना है ।
नाम में संकल्प निहित है कि किस विशेष प्राप्ती हेतु नाम सुमिरन हो रहा है । संकल्प से ही सिद्धि हो जाती है ।
और जैसे श्रीहरिवँश ।
यहाँ प्रिया जी , प्रीतम और वंशी का चिंतन है । बंशी बजती ही निकुँज में है । यहाँ बंशी कोई वस्तु नही अपितु विशेष अधररस पीती चिन्मय ही है । यहाँ हरिवंश जी की अनुगता बन ही मिलन है । अर्थात युगल संग उनकी बंशी हो और उस बंशी के नाद से आकर्षण में नित्य वृद्धि हो । यहाँ बंशी में श्री जी का नाम ही सरकार गाते है और ध्यान प्रियाचरणों में उनका होता है । वें प्रत्यक्ष नाम सुमिरण न कर उसके गान में ही स्वयं और जगत को आह्लादित करते है । हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
इस महामन्त्र में भी । बड़ा दिव्य रस का चिंतन है ।।।
प्रीतम को प्रिया जी के संग में राधाभाव बहुतों बार प्रकट हो जाता है । वें लीला रस में बौरा ही जाते है । परन्तु वेणु वादन में वें प्रिया जी की भाँति नाम सेवन करते है । जो उजागर हो जाता है कि वेणु में प्रिया जी का नाम सुमिरन हो रहा है तब भी आह्लादिनी की कृपा से रसवर्धन हेतु रहस्यमय  गोपनीय बना रहता है । वरन् आकर्षण का कारण ज्ञात होने पर लीला में विछेदन हो ।
जान कर भी ना जानना , ऐसी स्थिति प्रेम में निहित है । गोपियां जितना युगल को जानती है उतना कही कोई वेद शास्त्र भी नहीं । परन्तु गोपियां अपने जानने को स्वीकार ना कर अपने अज्ञान को सहज मान लेती है। और उनकी प्राप्ति का यें ही सूत्र है ।
उन्हें जानने में नहीँ मानने में सार है । इस मानने में उन्हें जान भी लिया जाये तो लीला प्रेमरस हेतु उस ज्ञान को स्मृति से हटा केवल लीला रस में रहा जाए । केवल सेवा सहित निष्काम भाव से श्री जी चरण युगल की आस से भजन मार्ग में प्रेम पथ खुलता है ।
युगल में केवल प्रेम है , और उनके प्रेम से ही जगत हुआ । ईश्वर प्रेम मय ही व्याप्त है सब जानते ही है ।
अपितु प्रेम भाव से देखा जावें तो प्रेम के अतिरिक्त उन दोनों को कुछ नही आता । लीला में उनका संग ऐसा है जैसे वें बच्चे ही हो । सम्भालना होता है उन्हें ।
सब कुछ उनका पर निकुँज में दोनों प्रेम रस में सब बिसार एक दूजे में बेहाल हो जाते है । सखियाँ अपना आह्लाद और प्रेम रुदन कम्पन सब भुला श्यामाश्याम को सम्भालती रहती है ।यें सब कहना नही चाहिए । वो प्रभु ही बने रहे । जगत् में हर कोई उनके प्रेम स्वरूप को पाना नही चाहता । जगत पर उनका नियंत्रण है ,परन्तु लीला में उनका नियंत्रण हो कर भी नहीँ लगता । वहां युगल नायक नायिका के पात्र है । प्रेम में भरे । कभी कभी जगत को मोहित करने वाले मोहन श्री जी के दर्शन से ही मूर्छित हो जाते है ।और श्री जी फिर तीव्र व्याकुल और स्वयं को उनके कष्ट का कारण मानने लगती है । इन दोनों को सम्भालने में ही सखियों का रस है । तभी तो दोनों ही सखियों से अति नेह रखते है । क्योंकि सखियों से कोई भेद नही छिपा रहता ।वहाँ सा यहाँ कुछ नही । "तृषित" ।

Ha lekin kbhi kbhi wo maan karke bhi bhaith jati he . ...
जी , मान ही नित्य नही होता ।
और मान के आगे परम् रसमय स्थितियां होती है ।
मान प्रेम रस का ही श्रृंगार है ।
वहां का मान भी प्रीतम के सुख के
लिए है ।
प्रीतम से रूठने में भी प्रीतम का सुख ।
आप ने ये बहुत सूना है मान कर लेना ।
और अब जगत में जो सखियाँ उनकी है वो मान ही कर के रहती है। मान में प्रीतम की चाह या सुख का स्मरण नही रहता ।
जै जै चाहे कि श्री जी रूठे फिर मनाऊ तो ही ऐसा होता है ।
श्री जी उनसे रूठ नहीँ सकती । प्रीतम के विपरीत भाव होना उन्हें सहन नहीँ होता । वें मान करना भी नहीँ जानती । उनमे सर्वत्र क्षमा है तो अपने प्राणाधार के लिए वें इतनी संकुचित हो .... ऐसा नहीं ।
उन्हें इतना प्रेम है कि वें चाहे तो भी ना रूठे । किसी भी विपरीत परिस्थिति में भी नही । कोई प्रमाण भी नहीँ चाहती । परन्तु कान्हा चाहते है कि मान हो । क्योंकि यें श्री जी के लिए अति असहज है । और इस मान में भीतर से वें तीव्र व्याकुल होती है । उन्हें करना भी होता है और किया भी नहीँ जाता । परन्तु इतने मान से उनमें प्रेम और बढ़ जाता है । भीतर से तो अपने ही मान और शब्द-भाव से वें पीड़ित होती है । उनकी यें ही भीतर की व्याकुलता कान्हा के उन्माद को बढ़ाते है । मान किया जा सके तब मान हो वहाँ रस कैसे होगा ?
मान असम्भव हो , और तब अपने प्राणों से प्यारे से मान होवे तो तीव्र भाव उछलने लगते है । "तृषित"
हमें भी मान जब ही करना चाहिये जब मान से बेहतर जब मृत्यु लगे तब मान प्रीतम के सुख के लिये हो तब प्रेम अपने तीव्र आवेगों पर जा पहुँचता है ।

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