आप से दूरी कैेसे हुई ?
कहाँ से छुटे हम ! किससे !
क्यों ?
एक सफर कर मानव देह क्यों ?
और फिर होश सम्भल कर एक
सवाल कौन हो तुम ?
कौन है वो जो दिख नहीं रहा पर है ?
उसके होने का असर दिखता है ...
दिन - रात ! वर्षा ! सुर्य-चन्द !
अचरज ही अचरज !!
सदियों से मानव पागल सा खोज रहा है ...
पर कथित शिक्षित समाज मानने को तैयार नहीं वो है !
वो तो कहते है भगवान कौन है ?
क्या यें सवाल वाज़िब है !
वो कहीं होते और कहीं ना तो हाथ उठा देते कि यहाँ हूँ !
सर्वत्र है ... प्रश्न कर्ता में भी !
ना दिखेगें जब तक पर्दा है ...
पर्दा हटाने के लिये सवाल हो ...
मैं कौन हूँ ...
आत्म गहराईयों में उतरे ...
शरीर हूँ ... नहीं !
तो आत्मा ... नहीं वो भी मैं नहीं !
अब कुछ बचा ही नहीं ! मैं हूँ कहाँ ?
मैं नहीं हूँ तो यें मैं जो दिख रहा है
यें कौन है ? ... केवल भ्रम !
कि मैं हूँ ...जब्की मैं हूँ ही नहीं ...
वहीं है सर्वत्र !!
भगवान का अस्तित्व खोजे जाते है ?
अरे अस्तित्व ही उसका है ...
वहीं सच है .. शेष भ्रम है
स्वप्न है उनका !
माया है
...
अस्तित्व उसी का रहा है ... रहेगा !
हम ना थे ... ना है ... ना होंगें !!
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