भजन ... भजन का वास्तविक स्वरूप -- सेवा , त्याग और प्रेम ! भजन करने की विधि और उपाय है -- प्रभु में आस्था , श्रद्धा , विश्वास और आत्मीयता का होना | चार बातों को मान लेने पर भजन स्वत: हो जाता है | यानी प्रभु है , सर्वश्रेष्ठ हैं , सुख और सौन्दर्य के भण्डार हैं और मेरे हैं -- यें चार बात मान लेने पर ही वास्तविक भजन होता है | भगवान में अपनत्व मानना अनिवार्य है , प्रेम जब तक होगा नहीं , जब तक अपनापन ना हो | अपने में प्रीति स्वत: होती है और जिससे प्रीति होती है , उसकी स्मृति भी स्वत: होती है | अत: स्वत: स्मृति का होना ही सच्चा भजन है | जब तक ममता , कामना और आसक्ति का त्याग नहीं करोगे, भजन होगा ही नहीँ । इनका त्याग किये बिना प्रभु में पूर्ण आस्था कैसे होगी । इनके त्याग से ही सेवा , प्रेम , और त्याग की प्राप्ति होती है । सेवा हेतु ही देह आदि को सेवा में लगाना है । सभी वस्तुएं प्रभु की ही है , अपना मानकर भजन -प्रेम कैसे होगा । जिस वस्तु का सहज मन से त्याग ना हो वो भी एक समय तत्व में विलीन होनी है । देह आदि उनकी वस्तु है , ये जान कर स्व को उनके हेतु , उनमें ही पाना है । एक अबोध बालक सहज स्वीकार करता है , कि अपने माता-पिता का हूँ । जब बोलना भी नहीँ जानता तब स्वयं को अपनी माँ की वस्तु ही मानता है । अपने को माता-पिता का और माता-पिता को अपना मानता है । यहीँ अपनत्व है , और यही से प्रीत की डोर बंधती है । इस अपनत्व में तीन बात हुई पर एक ही कारण से , एक त्याग । स्व से मुक्ति हो प्रभु को अपना मानने पर स्व से सम्बन्ध का त्याग हुआ । अपने लिए किये श्रम , चाह , आसक्ति , आदि विकार की तरह काँटों की तरह बढ़ते है और यहाँ अपने हेतु किये समस्त आयोजनों में जीव उलझ जाता है । वहीँ श्रम-कर्म अपने प्रियतम् (भगवन्) के लिए हो तो सेवा हो जाते है और उनकी चाह-आसक्ति अनुराग और प्रेम हो जाती है ।
सेवा में सर्वस्व को अन्य की सेवा में लगाना होता है , पर(दूसरे) में जब तक परमात्मा ना दिखे , प्रेम का रंग ना खिलेगा । क्योंकि प्रेम में प्रियतम् के अतिरिक्त कुछ दिखता ही नहीँ , अतः प्रेमी स्वतः परम् प्राप्तियों से भी ऊपर होता है । सर्वस्व प्रियतम् की भावना से लालायित । ज्ञानी जिस दशा को वसुदेवसर्वम् कह कर विचार करते है । प्रेमी उन ही स्थितियों को जीने लगता है । चहूँ और प्रियतम् ही दिखाई देवे । तब जो भी अपना है वही सेवा में सर्वत्र प्रभु को मान स्वतः लग जावें । कहीँ भी वैमनस्य ना हो , घृणा ना हो । सर्वत्र समान रूप सब स्थितियों में प्रेमवर्षा का अनुभव हो । जहाँ कथित प्रेम तो हो परन्तु कहीँ सेवा की भावना ना बन सके तो प्रेम की कलि खिल ना सकेगी ।
त्याग के लिए कुछ अपना भी चाहिए यहाँ स्वत्व की भावना का ही त्याग है । संसार में जो कुछ है मेरा नहीँ है , मेरे लिए नहीँ है , मुझे कुछ नहीँ चाहिए - यें त्याग है । त्याग से अहंकार का मर्दन होने से समस्त भजन हो जाता है । सेवा से समस्त जगत प्रसन्न होता है । त्याग से अपने भीतर प्रसन्नता होती है और प्रेम से प्रभु प्रसन्न होते है ।
सेवा और त्याग के बिना प्रेम का प्रादुर्भाव नहीँ होता है । सत्यजीत "तृषित"
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग
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