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प्रेमावली लीला 51 से 55

तीन लोक चौदह भुवन, प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं।
जगमग रह्यो जराव सौ, श्री वृन्दावन माहिं ||51||

श्री ध्रुवदास कहते हैं कि तीन लोक और चौदह भुवनों में सहज प्रेम के दर्शन कहीं नही होते। यह तो एकमात्र श्री वृन्दावन में कञ्चन में जड़ी मणि की भाँति जगमगा रहा है ||51||

प्रेमी बिछुरत नाहिं कहुँ, मिल्यौ न सो पुनि आहि।
कौन एक रस प्रेम कौ, कहि न सकत ध्रुव ताहि ||52||

ढूँढ फिरै त्रैलोक जो, बसत कहूँ ध्रुव नाहिं।
प्रेम रूप दोऊ एक रस, बसत निकुञ्जन माहिं ||53||

श्री ध्रुवदास कहते हैं कि कोई तीनो लोकों में अच्छी तरह से ढूँढ ले फिर भी इन दोनों का निवास कहीं नही मिलेगा। प्रेम और रूप दोनो एक रस रहकर केवल श्री वृन्दावन की निकुञ्जों में निवास करते हैं ||53||

नित्य भूमि मण्डल सहज, श्री वृन्दावन ऐन।
रतन जटित जगमग रह्यो, रसिकन मन सुख दैन ||54||

श्री राधा मोहन के निवास स्थल श्री वृन्दावन की भूमि नित्य और सहज रूप से मण्डलाकार है। रसिकों के मन को सुख देने वाला श्री वृन्दावन रत्न जटित होने के कारण सर्वदा जगमगाता रहता है ||54||

तरनिसुता चहुँदिशि बहै, शोभा लिए अथाह।
मानो ढरयौ सिंगार रस, कुण्डल बॉधि प्रवाह ||55||

श्री वृन्दावन के चारों ओर श्री यमुना जी शोभा लिए प्रवाहित होती रहती है। उनको देखकर ऐसा मालूम होता है कि स्वयं श्रृंगार रस कुंडल बाँध कर श्री वृन्दावन के चारो ओर बह रहा है ||55||

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