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बहुत

क्यूँ है ज़िन्दग़ी तुझे आज यूँ क़ब्र में भी सब्र बहूत
ज़हीर-ओ-हबिब की उल्फ़त में दर्द में ख़ुशबु है बहुत

ठोकरों की महफ़िलें सजाई है मेरे क़दमो ने बहुत
हर लम्हें को ज़श्न नवाज़ा है किसी ने तब भी बहुत

ज़रूरतें जब मेरी उठी ज़मी साँसो की उधड़ी है तब बहुत
फ़क़त तेरी क़शिश में जलती रूह ख़ामोशियोँ में गाती है बहुत

सच कहूं यारों अपने वज़ूद से हैरां अब रहता हूँ बहुत
इस गुस्ताख़ ने क़त्ल भी किया तो हर क़तरे का बहुत

हर बहार-ए-गुल ने काँटों से दिल को कुरेदा भी है बहुत
फिर भी चाहत में किसी की कपास के फूल उड़ते भी है बहुत

एक ज़िंदा लाश को जी रहा हूँ जहाँ अब ख़ाक है बहुत
और कही मुहब्बत की तलब डूबा आँसमा में घुल रहा हूँ बहुत

कई ज़िन्दग़ियां मैंने जी कर पत्थर कर दी थी जब सख़्त बहुत
तब जीने लगा यूँ , कोई सागर सिमट रहा हो हर मौज़ में बहुत

ज़रूरत क्यों है आज भी तुझसे ज़ुदा होने की , सोचता हूँ बहुत
बेगानी उलझी आरज़ूओं में सुलझती सरगम पर थिरकता कोई है बहुत

कभी था मैं भी ख़ुद में , आज कोई और मिला जब तलाशा बहुत
हैरां है निगाहें देखकर , ईश्क़ में लाशों में भी है हसरतें  बहुत

यूँ पहले तब ना था , कहीँ खोकर आने लगा  फ़िज़ाओं में मज़ा बहुत
तेरी डूबती गहराई की शब में सिमटने को दिल हुआ अब "तृषित" बहुत
*** सत्यजीत तृषित ***

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