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गले के फोड़े भी भजन में जरूरत बन गये

जय जय श्यामा श्याम ।
महाराज श्री राजेंद्रदास जी की वाणी में एक ब्रज प्रेम का का दृष्टान्त सुना । तब से निवेदन का मन हो रहा है । प्रेमी को अन्य कोई दुःख नहीं केवल भजन बाधा के । केवल भाव छुटने के । तितिक्षा सन्तों की परम् औषधि है जो हरि सुमिरन में वें पीते है । कुछ-कुछ नाम स्थान की विस्मृति हो गई है तब भी जैसा हो निवेदन करता हूँ । बहुत पुरानी बात नही , गोवर्धन के एक परम सन्त । स्थान शायद कमल कुण्ड के पास ही । गौड़ीय संत । परम् भजनानन्दी । वृद्धावस्था में उनके गले पर बड़े फोड़े निकल आये । बड़ा दर्द उठता  । मवाद-रक्त बहती रहती । और वें भजन में मगन रहते । दर्द को हरि मिलन की औषधी बना भगवत् नाम में कराहते रहते । बड़ी भीषण वेदना । देखते न बनता । उनके शिष्य -सेवकों को बड़ा कष्ट होता । गुरु जी उठ नहीँ सकते थे , स्नान आदि शिष्य ही कराते। जबरन कुछ दवा लेप तो करते परन्तु महाराज जी पूर्ण ईलाज के लिए तैयार ही न होते । एक सेवक भक्त जो सेवा में रहते एक शाम कुण्ड के समीप बैठे रो रहे थे । कह रहे थे , "हे गोविन्द , जीवन भर गुरु जी इतनी तन्मयता से भजन किया । कितनी सेवा की , और आज तुम उनकी भीष्ण वेदना देख रहे हो । कोई उपचार नहीँ , तुम चाहो तो ठीक कर सकते थे । " इस तरह वें शिष्य जिनसे फोड़े और घाव के कष्ट में गुरुवर को देखते  न बना वे प्रभु जी को भारी उलाहना दे रहे थे । इतने में एक अतिसुन्दर ग्वाल बालक वहाँ आता है .... रोते देख, रोने का कारण पूछता है । भावों में वैष्णव सेवक सब बात कह देते है । बालक कहता है वो ठीक ही नहीं होना चाहते तो किया क्या जाये ? फिर भी ग्वाल बालक सेवक के भाव देख एक पुड़िया देता है और कहता है कि इसका लेप करना घाव ठीक हो जाएंगे । सेवक रात्रि में दवा के स्थान पर ग्वाल की दी ही दवा का लेप कर देते है । सवेरे वहाँ कोई फोड़ा ही क्या कोई निशान नहीँ , मानो कभी कुछ हुआ ही नही । कोई दर्द नहीँ । बाबा बेचैन हो शिष्यो से कहते है अरे मेरी माला कहाँ गई ? शिष्य कहते है कौनसी माला गुरुवर ? बाबा कहते है मेरी कण्ठ की माला । शिष्य कहते है वो तो आपने पहनी ही है । बाबा कहते है अरे ये नही वो हरि प्रसाद में मिली माला । शिष्य नही समझते तो बाबा कहते है वो फोड़े रूपी माला । वें शिष्य कहते है  बाबा वो तो रात को दवा लगाई तो ठीक हो गई । एक ग्वाल बाल ने दी थी । बाबा समझ जाते है , बड़ा व्याकुल हो विलाप करते है । बहुत रोते है । सेवक के कृत्य पर अति रुष्ट हो कर कहते है तूने पूरा जीवन बिगाड़ दिया । अब अपने इतने से शेष कर्मफल को भोगने के लिए फिर जन्म होगा । उसे तो भोगना ही था आज भोगता तो शेष कुछ न रहता । अब तू यहाँ से चला जा और लौट कर न आना । बाबा के वहां से निष्काषित करने पर सेवक सन्त हृदय से व्याकुल हो उठते है । विचारते है कि बाबा की अब सेवा कैसे होगी । उन्हें बिना सेवक कैसे भोजन स्नान आदि पूरा होगा । सेवक वापिस उस शाम वही बैठ रोने लगते है । गौधूली में पुनः वही ग्वाल बालक आता है । विलाप करते देख कहता है क्यों आज क्यों रो रहे हो ? रोग ठीक न हुआ । शिष्य कह देते है कि रोग तो ठीक हो गया पर बाबा ने मुझे निकाल दिया । और बड़े दुःखी हुए वे । ग्वाल बालक कहता है मैंने तो पहले ही कहा था उन्हें ठीक ही नही होना  , पर तुम ही व्यथित थे । कोई बात नहीँ वापिस जाओ और पुड़िया देकर कहा कि यें दवा लगा देना , पुनः फोड़े आदि पूर्ववत् हो जाएंगे । सेवक पुड़िया लेकर बाबा के पास गया । बाबा ने कहा तुम फिर आ गए .... मुझे तुम्हे देखना ही नही । जाओ । सेवक सन्त कहे बाबा आपकी माला मिल गई । ये दवा लगा लो आपकी खोई माला लौट आएगी । ग्वाल बालक ने दी है । बाबा खुश हो गए और दवा लगवा ली । उनकी मवाद फोड़े पिप से भरी वही कण्ठ माला पुनः आ गई और बाबा पुनः दर्द में हरे कृष्ण हरे कृष्ण पुकारने लगे।  मानो उनका आनन्द लौट आया । बाबा के भजन प्रताप से बिना भजन केवल सेवा से दास को दो बार भगवत् दर्शन हुए । अतः जीवन के ताप , व्याधि -पीड़ा से व्यथित न हो । जन्म-जन्म की फेरी में शेष बचे अन्य जन्मों के कर्म को भी भागवतों को इस ही जन्म में भीष्ण रूप से भोग नित्यमिलन प्राप्त होता है । .... इसलिए लिखा कि कहा जाता है भजन भाव में किन्हीं भक्तों को व्याधि में देख तुम तो भजन करते हो फिर भी । भजन दैहिक सुख के लिए नहीँ होता परम् सुख के लिये । भजन के प्रताप से स्वास्थ्य प्राप्त होता है परन्तु तब भजन की सूक्ष्म प्राप्ति में व्ययता हो जाती है।  बहुत बार तो संत और भक्त किन्हीं भगवत् जनोँ की ही पीड़ा को स्वयं भोगने लगते है । क्योकि वहाँ आधिदैहिक और आधी भौतिक ताप में भी आनन्द बना रहता है । शरीर का दुःख , दुःख न प्रतीत हो भजन में करुणरस का काम करने लगता है । सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

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