कोटि कल्प काशी वसै ,
अयोध्या कल्प हजार ।
एक निमिष ब्रज में वसै,
बड़भागी द्वाष्णदास ।।4।।
ब्रज चौरासी कोस है,
कमलाकार अनूप ।
रासलीला कौ ललितथल,
श्री राधा ब्रज भूप।।5।।
ब्रज में जो जो वस्तु है ,
सो सब भगवद् रूप।
ताकौ सुमरन करत ही,
तारै भवतम कूप।।6।।
ब्रज के रजकण भणन को ,
पूछत कौन प्रमान।
कोटि सहस्त्र मुख शेष सों,
रटें न होत बखान ।।7।।
बरस हजारन तप कियौ,
वेद चतुर्मुख गाय।
ब्रज बनितान की चरण रज ,
ब्रह्मा हू नहीं पाय।।8।।
महा अलौकिक काष्ट रज ,
महा महिमा ब्रज धाम।
मुख में लइ रज मृतिका,
काष्ट बंधे हरि राम।।9।
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