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खेलत ब्रजरज संग नवलमुकुंदा , तृषित

खेलत ब्रजरज संग नवलमुकुंदा ।

यमुना पुलिन उछाले मृतिका कन्दा ।

खेलत खेलत ज्यों निहरत छुटत सर्वफन्दा ।

प्यासो रसवर रेणु अंग-रंग नहाय लागे बदरिया से झाँकत चन्दा ।

नाम धरयो साँवरो संवरे रज-कुंदन सु पुनि-पुनि उछालत रेणु मुकुंदा ।

सुनि भय सब भाग्यो ऐसो लागे मोहन अति सोहणो फीको जगत सब धन्दा ।

कहे मुनि जन सुनाय जगतपति बसो जाय सदा वृन्दा ।

देखत फिरत न मिल्यो दूजो सोहणो कहा छुपत सर्वभुत ईश आय वृन्दा ।

नयनवास करत अब गो धूलि न्हावन वालो लागत फीको चन्द्र रुखो अब अरविन्दा ।
-- सत्यजीत तृषित

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