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कैसे दरस-परस तव पाऊँ

कैसे दरस-परस तव पाऊँ।
साधन हीन दीन मनमोहन! कैसे करि मैं तुमहिं सुहाऊँ॥
ऐसो कोउ न गुन या जनपै, जाके बल मैं तुमहिं मनाऊँ।
अति गुनहीन हीनमति मोहन! का मुख लै तुव सम्मुख आऊँ॥1॥
पै का करों न मानत यह मन, तुम बिनु अपनो कोउ न पाऊँ।
परी भँवर में नैया भैया! और खेवैया काहि बनाऊँ॥2॥
सदा तिहारो, सदा तिहारो, कैसे तुमहिं प्रतीति कराऊँ।
जानत हो जन के मन की सब, फिर का कहि मैं तुमहिं जनाऊँ॥3॥
जैसो हूँ, हूँ सदा तिहारो, तुमहीकों मन-भवन बसाऊँ।
एक बार तुमहूँ तो कह दो, ‘तू मेरो’ तो हिय पतियाऊँ[1]॥4॥
तुम ही सों है लगन ललन अब, और कहाँ जो सीस खपाऊँ।
अपनेकों अपनावत आये, फिर मैं ही निरास हो क्यों जाऊँ॥5॥

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