गोपाल'संग'कजरी गाय-15
काली अंधियारी स्याह रात के बाद विरही कृष्ण के लिए एक सुंदर सुखद भोर का आगमन हुआ है।पर कान्हा में वो उत्साह और उन्माद नहीं है आज जो हर एक नई सुबह के साथ एक नई अद्भुत क्रीड़ा को जन्म देता है।आज उनमें अह्लाद का अभाव है जिसका स्थान उतावलेपन व हड़बड़ाहट ने ले लिया है।
त्रिलोकी के अधिपति जो भक्त के प्रेम में डूबे कई महासागर पार कर पलक झपकते ही प्रकट होते हैं आज अपनी प्रेयसी के लिए अत्यधिक व्याकुल हैं।वे चाहें तो अपनी परमभक्ता कजरी के लिए वहाँ राधे जु के भवन में पधारें बे रोक टोक पर यह उनकी दिव्य प्रेमलीलाओं का धाम जो ठहरा।यहाँ उनके कौतुकी लीलाओं का कोई स्थान नहीं।
भले ही बालपन में कई राक्षसों से बिना युद्ध किए उन्हें तारा हो पर प्रेम में जो विशेष भूमिका इंतजार और तड़प,संयोग और वियोग में है वो सब यहाँ तुच्छ ही प्रतीत होती हैं।संयोग के अपार आनंद के लिए अपार व असहनीय वियोग अत्यधिक आवश्यक है।फिर प्रेम और युद्ध में जहाँ सब जायज़ है वहाँ प्रेम में ये बात कई स्तर ऊँची ही है।
अक्सर जिस विरह की पीड़ा को राधे जु और उनकी सखियां कृष्ण को प्रत्यक्ष पाकर भी नहीं खोतीं आज वही विरहअग्नि श्याम जु को उनके नहीं होने से जला रही है जिसकी पीड़ा से बेसुध आवेशित कन्हैया आज मईया और बाबा को चौंका देते हैं।
आज कान्हा सबसे पहले ही उठ कर एक दम तैयार हैं और माँ से बिन कहे पूछे ही गौ पूजन की सारी व्यवस्था उन्होंने कर ली है।उनके चेहरे पर व आँखों में प्रेमाश्रु हैं और वो माँ बाबा का इंतजार बड़ी बेताबी से कर रहे हैं कि वे शीघ्रतिशीघ्र गौपूजन के लिए आ जाएं।नंदबाबा व चरवाहों ने मिल सारी गाईयों को नहला धुला कर वाड़े में एकत्रित कर दिया है।अब होगा महापूजन समस्त गौमाताओं का कान्हा जु के हाथों।
रोजाना कार्यपूजन विधि नंदबाबा के हाथों सम्पन्न होती है पर आज सब बेसुध कृष्ण ने ही कर डाला।उन्होंने गईयों की प्रत्येक गौपालक के साथ ही पूजाअर्चना की और पूरी विधि विधान से सब कुछ कर फिर उन्हें भोग भी लगवाया।तुरंत बछड़ों को भी खोल दिया ताकि वे भी अपनी रातभर की तृषा को शांत करलें।कन्हैया को आज ऐसे देख सब प्रसन्न तो हैं ही लेकिन कान्हा के मुख की गम्भीरता को कोई समझ नहीं पा रहा।क्यों आज उनकी आँखों में अश्रु हैं ये किसी को भी ना भा रहा है पर ना ही कोई उनसे इसके पीछे की वजह ही पूछ पाता है।
इतने में बाबा को याद आता है कि कल शाम से उन्हें कजरी नज़र नहीं आई।कितनी ही बार कन्हैया से पूछते पूछते रह गए।वे गोपसखाओं से पूछते हैं तो पता चलता हैं कि कजरी तो वृषभानु जी के यहाँ है।बाबा बहुत प्रसन्न होते हैं और भीतर जाकर कान्हा से कजरी के नहीं होने के कारण ही उदास होने की वजह मईया से बताते हैं।कान्हा भी आँखें झुकाए झुकाए ही हाँ में सर हिला देते हैं।मईया उनके विचित्र प्रेम को देख वन जाने से पहले फिर उनकी नज़र उतारती हैं और बलराम से कान्हा का ध्यान रखने के लिए कहती हैं।दाऊ भैया मन ही मन कन्हैया को इशारा कर हस देते हैं कि माँ क्या जाने वन में कान्हा गईयों का ध्यान रखते हैं या मैं उनका रखता हूँ।राधे को देख कान्हा को कहाँ किसी की भी आवश्यकता रहती है।फिर तो वे दोनों ही भलीभाँति एक दूसरे का खूब ध्यान रख लेते हैं।
वहीं दूसरी ओर राधे जु आज भोर में ही उठकर अपने नित्य प्रति नियमित कार्यों से पूर्व कुछ अलग ही कर रहीं हैं।वो सखियों संग मिल बहुत सी अभिन्न श्रृंगार की वस्तुएँ इकट्ठा कर रही हैं।माँ उनसे बार बार पूछ रही है
अरे लाडली आज ये क्या विचित्र सी सामग्री इकट्ठा करने में तू सुबह से व्यस्त है री।
पर माँ को कोई कुछ बताए तब ना।भोर में पूजन और पाकशाला में भोग प्रसाद बनाने के इतने काम पड़े हैं कि मईया तो राधे जु को मनमानी करते देख वहाँ से बड़बड़ाती सी चली ही जाती हैं।
एक तरफ तो गौ पूजन की सब सामग्री तैयार कर रखी है वहीं एक दूसरे थाल में राधे जु अपना साजो सामान उठा वहाँ आ पहुँचीं हैं।बाबा राधे को देख बड़ा प्रसन्न होते हैं और पूछते हैं
अरी बिटिया आज तू गौ पूजन से पहले ही तैयार होकर आ गई है और क्या है ये सब!!
राधे बाबा को मुस्कराते हुए कजरी की तरफ इशारा कर देती है और उनसे कजरी को खोल पास लाने के लिए आग्रह करतीं हैं।बाबा उनकी बात नहीं टालते और खुद अपने हाथों से कजरी को खोल ले आते हैं और लली के पास खड़ा कर देते हैं।
अब बाबा के आनंद की तो कोई सीमा ही नहीं रहती जब वे राधे को अपने नन्हे नन्हे हाथों से सुसज्जित करता देखते हैं।नन्ही सी लाडली बिटिया सखियों को आदेश देतीं हैं कि कब उन्हें क्या चाहिए थाल में से और एक एक कर कजरी को सुंदर श्रृंगार धरातीं हैं।
पहले तो कजरी को प्रेमपूर्वक नमन कर उनके पैर छूतीं हैं और फिर उन्हें एक बड़ी ही प्यारी पुष्पमाला व एक हार भी पहनाती हैं।इसके बाद कजरी के सींघों पर सुंदर रंगबिरंगे धारीदार खुद अपने हाथों से बुने मौली व धागे बाँधतीं हैं। सींघ के ऊपरी भाग पर घुंघरू दार पतली छोटी सी लाल चुनरी भी बाँध देतीं हैं और उसमें एक मोरपंख भी लगा देतीं हैं जिसे देख सब सखियां खिलखिला कर हस देतीं हैं और किशोरी जु मुस्करा देतीं हैं।अब वो नीचे बैठकर कजरी के आगे के एक पाँव पर वही रंगबिरंगे धागे वहीं मोली बाँधती हैं और दूसरे पग पे घुंघरूओं से भरी एक लाल चुनरी जिसे उन्होंने खुद अपने हाथों से एक एक कर पिरोया है।श्यामा जु आखिर में कजरी की पीठ पर एक लाल और पीले रंग का दुशाला भी औढ़ा देतीं हैं।इस तरह आज पहली बार कजरी गाय का किसी ने इतना दिव्यतम श्रृंगार किया है जिसे देख सब भवन में एकत्रित कार्यकर्ता सपरिवार आनंदचकित हुए हैं।माता जब लली को ये सब किए देखती हैं तो अत्यधिक प्रसन्न होती हैं और कजरी की बलाईंयाँ लेती है।वे भी श्यामा जु की नज़र उतारती हैं और फिर सब मिल कान्हा जु की कजरी गाय व अन्य गायों की आरती उतारते हैं और भोग लगवाते हैं।
पाकशाला के सभी कार्य निपटाकर राधे जु अपनी सखियों व कजरी के साथ वन जातीं हैं।आज तो उनकी खुशी व आनंद का कोई ठिकाना ही नहीं और जैसे ही मनमोहन श्यामसुंदर दूर से ही पायल की रूनझुन सुनते हैं तो उठकर राधे जु के आगमन की दिशा में कदम बढ़ाते हैं कि वही पगली सखी उनके समक्ष वंशी हाथ में लिए लजाती सी आँखें झुकाए खड़ी हो जाती है।
श्याम जु की आँखों में तो पहले ही राधे को देखने के लिए भरपूर स्नेह भरा है पर इस सखी पर नज़र पड़ते ही उसके हाथों वंशी लेते हुए उससे कहते हैं
क्यों री रात भर तो बड़ा नाच रही थी।यों तो अकेले में अपने भावजगत में खोई तू मुझसे बड़ा लाड लड़ाती है और अब जब प्रत्यक्ष तेरे सामने खड़ा हूँ तो नज़र भी ना मिला सके है तू!
कहते कहते कान्हा जु उसका हाथ थाम लेते हैं और उसे ले श्यामा जु के पास आ जाते हैं।सखी तो वहीं हाथ छुड़ा राधे जु के सामने नतमस्तक हो जाती है पर राधे जु उसे देखते ही कंठ लगा लेतीं हैं।
यहाँ श्यामसुंदर जु तो पहले राधे को फिर कजरी को देख चकित हैं और कुछ भी कह पाने की उनकी स्थिति ही नहीं।उनके अंतसपटल से सब औझल हो चुका हैं सिवाए किशोरी जु के और कजरी के।
आहा।।आनंद।।
उन्हें और तो कुछ समझ नहीं आ रहा पर वो अपने झोले में से मक्खन निकाल कर कजरी को उसी का भोग लगवा देते हैं और उसे दुलराते हुए राधे जु के गईयों के प्रति अद्भुत स्नेह की सराहना करते हुए कजरी की वंदना करते हैं।फिर वे दोनों घंटों कजरी के पास खड़े प्रेम भरी बातें करते हंसते गाते व वंशी बजाते रहते हैं।उन्हें कजरी में ही समग्र विश्व व ब्रह्मांड समाया दिखता है और सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृति प्रेम की अद्भुत मिसाल देती हुई परिभाषित हो रही है।
यही है राधेकृष्ण की लीला जिसमें वे गौपूजन व प्रकृति प्रेम की अनूठी यशपूर्ण मिसाल देते हैं।गाय तो परम पूजनिय है जिसकी पूजा अर्चा से स्वयं श्यामा जु इतनी प्रसन्न होती हैं और श्यामसुंदर जु ने तो धरती पर कृष्णावतार में अपना सम्पूर्ण जीवन काल ही गईयों की सेवा करते और उनकी चरण रज का पान करते बिता दिया।
जय हो।।
धन्य कजरी गय्या मैया और धन्य राधेगोपाल गौपालक जु की।।
अरी सखी आज तो ये प्रण लेती हूँ कि संगिनी बन श्यामाश्याम जु संग सदा कजरी की सेवा करूँ या कजरी बन अपने राधेगोपाल को भजती उनके चरणों को प्रेमाश्रुओं से धोती रहूँगी।
जय जय श्यामाश्याम
जय जय राधे गोपाल
"आगे गाय पाछे गाय इत गाय उत गाय।
गोविन्द कूँ गायन में बसिबौ ही भावे।।
गायन के संग धावै गायन में सचु पावै।
गायन की खुर रेनु अंग लिपटावै।।
गायन सों व्रज छायौ, वैकुंठ विसरायौ।
गायन के हित गिरि कर लै उठावै।।
‘छीतस्वामी’ गिरिधारी, विट्ठलेस वपु-धारी।
ग्वारिया कौ भेषु धरैं गायन में आवै।।"
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