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विरही विरहा काहे सताये , संगिनी

विरही विरहा काहे सताए
तू भीतर मेरे मैं भीतर गयो समाए

भीगी भीगी सी ऋतु में
तन भीगे ना भीगे
मन भीग ही जाए
बाहर बरसात में मीत संग
देखूं खुद को
जिया कभी तड़पे
और कभी चातक सा मुस्काए

बैठी सोच रही आलिंगन को
पिया आए के बाहों में भरे
प्रेम भरी वर्षा को
अपनी आवन से महकादे
देख श्याम को संग में
संगिनी सुख की आह भरे
नीरस बरसात के फुहारों में
प्रियतम संग खुद रस रंग भरे
देख देख सुंदर सावन
पिया मोसो नेह करे

काहे विरह सतावे तोहे
तोह से क्या मैं भिन्न हूँ
हृदय मंदिर में समाया मैं
तू आँख झुकाए देख ले
अंतर्मन की छवियों को
नीले आसमां में दे जगह
विरह की अंधियारी चुनरी को
प्रेम रस में भिगोए ले
इन बरखा की बूँदों में
छूकर देख मैं बरस रहा
ठंडी ठंडी पुरवाई में
मैं ही तुझको महका रहा
गड़गड़ाहट इन घटाओं की
भीगने को तुझे बुलाती है
तेरे भीतर से मैं ही तुझे
तेरी ही बाहों से जकड़ता हूँ
कम्पन बन तेरे हृदय से
पूरे तन में मैं ही तो विचरता हूँ
श्वास श्वास में घुल घुल कर
देख तुम में ही से बाहर
और फिर भीतर तेरे समाता हूँ

प्रेम करती है पगली
पर अर्थ ना समझती है
तेरे आंसुओं में मैं ही
तेरे दामन में आ गिरता हूँ
है गर संगिनी तो
आंसुओं को थाम ले
हर पल को मुझमें तू
आनंदोत्सव सा कर ले
प्रेम के गीत गा कर सुना
विरही मैं हो जाता हूँ
जब तुझमें राधा नहीं दिखती
तो अन्यत्र ढूँढने जाता हूँ
मुझमें तुम तुम में समाकर
राधा श्याम और
श्याम राधा को संग में पाता हूँ
यूँ चाहो और देखो अगर तुम
तो तुमसे मैं कभी दूर जाता ही नहीं
जब तुम हो राधा तो मैं श्याम और
श्याम बन राधा में ही समा जाता हूँ

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