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बारिश तुम जैसी और मिट्टी मुझ जैसी है , संगिनी

"ओ कान्हा
बारिश तुम जैसी और मिट्टी मुझ जैसी है
तू बरसता रहे और मैं महकती रहूँ"

आज अद्भुत है निकुंज की पुरवाई।सब सखियों ने मिल श्यामा जु के लिए कदम्ब तले पुष्पों से सजा झूला लगाया है।मञ्जरी सखी उन्हें झूले पर पधराकर दूर बैठीं मंद मंद पुष्पाविंत डोर से झुला रही हैं।पास ही खड़ीं दूसरी सखी उन्हें चंवर डुला रहीं हैं और एक ओर एक सखी प्रिया जु के लिए स्वर्ण जड़ित थाल में मोहनभोग लिए खड़ीं हैं।पर श्यामा जु तो आज एक अभिन्न ही उन्मादित आवेश में डूबीं हैं।वे जानती तो हैं कि उनके आस पास सखीगण हैं लेकिन अपने ही भावों में डूबीं वो इन सबसे व इनके कार्यों से अनभिज्ञ ही हैं।
आसमान में गहरे बादल छाए हैं।कभी कभी बिजली भी कौंध जाती है और बादल की घढ़ घुमड़ घढ़ की ध्वनि से प्रिया जु एक दम से खिलखिला कर हंस देतीं हैं।झूले पर लगे पुष्पों से महकती पवन जब प्रिया जु को छूकर गुज़रती है तो वो एक अनघट सपन्दन से सिहर जातीं हैं और लजाकर चल हट नटखट पुरवाईया कह कर मंद सा मुस्करा देतीं हैं।सखियां उनके इस भावावेश से वाकिफ तो हैं ही और साथ ही वो इस आनंद का खूब लुत्फ भी उठा पा रहीं हैं।आखिर वे ठहरीं प्रिया जु की अंशविभूतियां ही इसलिए उनको प्रियाप्रियतम के दरमियां होने वाली एक एक प्रतिक्रिया का आभास ही नहीं बल्कि वो हर एक छुअन सिहरन सपन्दन को महसूस भी करतीं हैं।
इधर श्यामा जु का भावावेश गहराता ही चला जा रहा है।वो झूले से उतरकर भागतीं हैं और झूमतीं नाचतीं गातीं खुले श्यामल आसमान के तले पहुँचती हैं।अद्भुत उन्माद है आज प्रिया जु के चाल चलन में।आज हर तरफ वे श्याम जु को ही खड़ा पातीं है और ऐसा लगता है जैसे वे उनके ही आस पास भंवरा बन मंडरा रहे हों और श्यामा जु घूम कर और भाग कर उन्हें पकड़ने की ताक में हों।
सब मञ्जरी सखियां भी उठकर श्यामा जु के आस पास घेरा बना खड़ीं हो जातीं हैं कि अचानक बादल बरसने लगते हैं और श्यामा जु बरसात की तेज बौछार में भीगते हुए कभी शर्मा जातीं हैं तो कभी एक एक सखी को श्यामसुंदर समझ उन्माद से भरकर संग नचाने लगतीं हैं।वे अपने भीगे महकते गेंसु खोल देतीं हैं और भीगे वस्त्रों में ही सिमटती जातीं हैं।आज तो उन्हें अपने ही तन से प्रियतम की महक व सिहरन महसूस हो रही है।नाचते गाते वो हर मञ्जरी सखी से लिपटती हैं और अंत में एक अलबेली सखी को तो अपने गहन आलिंगन में जकड़ ही लेतीं हैं जैसे कि ये संगिनी ना होकर पूर्ण श्याम ही हों।दोनों के तन भीगे हैं और दोनों ही गहरे आवेश में।भीगती ही जा रहीं हैं और भीगते भीगते श्याम श्याम ही पुकार रहीं हैं।बरसात और तेज़ होती है।इनका गहन आलिंगन टूटता है और अब श्यामा जु उस अद्भुत भावावेश से बाहर हैं और वो सखी भी।दोनों हाथों में हाथ डाल एक जैसा ही नाचने लगीं।पायल नूपुर कटिबंध निकुंज को गुंजाते से चूड़ियों की खनक व गीले तन और बालों से पुष्प झरते, पवन को महकाते से,थमती बरसात में दोनों के खेदहीन कदम धरा पर गहरी थाप देते से।अद्भुत मिलन की ध्वनियों से सब दिशाऐं गूँज उठीं।आज संगिनी राधा और राधा संगिनी हुईं।हों भी क्यों नहीं सब सखियन के मनमीत एक ही।आज सब मृदांगनाऐं नृत्यांगनाऐं एक ही हुईं।सब एक दूजे को श्याम जान श्याम श्याम ही हुईं।श्यामा श्यामा रटतीं जातीं।युगल कृपा इन सब पर हुई।
पूरी प्रकृति आज भीग भीग कर नाच उठी।

"लफ्ज़ तेरे कानों में बजते हैं मेरे
रूह से जैसे आती हो लय कोई"

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