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गोपाल संग कजरी गाय भाग 14

गोपाल'संग'कजरी गाय-14

अब ऐसी तो भावदशा है श्यामसुंदर राधे और कजरी की।हो भी कैसे ना।
अब वे और प्रेम दो भिन्न वस्तुएँ तो हैं नहीं।उनकी दृष्टि पड़ते ही वन में शोभा और यमुना जु में प्रेमामृत प्रवाह होता है।उनके चरणों व प्राणों के स्पर्श से ही वायुमण्डल सुगंधित होता है।उनकी वाणी से ही पक्षियों व प्रकृति में संगीत गुंजारित हो उठता है।तो भला उनके सखा व सखियों में इस प्रीति का जो उद्गम भरा है उसका थाह पाना किसके बस की बात है।
पर फिर भी प्रयत्न करूँगी उस सखी की भावदशा के बारे में कुछ कहने का जो जाने अनजाने कान्हा जु की वंशी संग ले आई थी।
सखियों ने उसे वंशी छुपाने को कहा क्योंकि उनको लगा था कि ये किसी से बात तो करती नहीं,खुद में ही खोई सी रहती है तो वंशी इसे दे देने से किसी को अंदाजा भी नहीं होगा।पर ये किसे पता था कि वंशी उसी के पास रह जाएगी और इसका उस पर क्या असर होगा।
वो सखी अपने घर पहुँच कर जब वंशी को देखती है तो उसे तो उस वंशी में ही अपने प्रति प्रीति ही प्रीति भरी नज़र आती है।मानो वो बरसों से जिसे पूज रही थी प्रकृति मान वो आज उसे अपने लिए प्रेम में सराबोर मिल ही गया है।
ये तो वैसे भी एक अलग ही आवरण में जीती थी।हर पल खोई सी संग अपने प्रियतम के।प्रियतम भी कौन?उस से अभिन्न उसके प्राणपति राधामयी कृष्ण जो उसके तन में प्राणवायु बन नहीं भरे थे अपितु उसके तन मन दोनों में प्रवाहित होने वाली वायु और प्राण ही वही हैं।उनसे अभिन्न तो जैसे उसका जीवन ही नहीं।हर पल हर कहीं वो अपने ही भावजगत में खोई हुई सी जिसमें उसके प्रियतम हर रूप हर एहसास में उसके संग ही हैं।यंत्रचालित सी अपने कार्यों में रत कभी उदास तो कभी उन्मादित।मधुर गीत सुनती तो खुद ही नाचती गाती तो कभी विरह गीत में डूबी निरंतर अश्रुपात करती और संगिनी होते हुए भी विरहित ही रहती।
नित्य एक नया भाव जिसमें डूबी आवेशित ही रहती कि भाव से निकल पाना ही कठिन हो जाता।श्यामसुंदर जु की वंशी की मधुर धुन में मंत्रमुग्ध हुई अंत में रोते रोते श्यामा जु के चरणों का आश्रय ले खुद को भावावेश से निकाल पाती।कई बार तो ऐसा अभेद प्रियाप्रियतम जु से कि खुद ही भीतर राधे बाहर श्यामसुंदर और कभी भीतर श्यामसुंदर तो बाहर राधे को ही पाती।
आज तो उसके मन का चैन और आँखों की नींद ही खो गई थी।वंशी कर में ले वो ऐसा समझ रही है जैसे श्यामसुंदर ही उसके सामने खड़े वंशी बजा रहे हों।कभी वंशी को हृदय से लगाती है तो कभी अधरों से।वंशी की छुअन ने ही उसे प्रियतम की छुअन का एहसास करा दिया है।उसका अंग अंग आज सम्पादित है।हृदय में वीणा और अधरों पर वंशी का निनाद छिड़ा है।पूरी रैन ना सोई और कहती है
ऐ री वंशी तू आज सोने ही ना देगी?
कहते ही वो वंशी की जगह प्रियतम को ही बोलते भी पाती है जैसे वो पास बैठे कह रहे हों
तेरी सुबह तेरी शाम,तेरा काज और आराम सब मैं ही तो हूँ री पगली!अगर तू सो भी जाएगी तो क्या तेरी निद्रा भी मैं ही नहीं?सोते जागते तू मेरा स्मरण करेगी तो सुषुप्ति की गोद भी तो मेरी ही गोद होगी री।
ये कहते कहते उसके मन के भावपूर्ण कान्हा उसकी आँखें मूंदते हैं और वो खुद को एक अलग ही अवस्था में पाती है।
आज वो निकुंज में ना होकर कहीं दूर रेगिस्तान में अकेली है और कान्हा कान्हा ही पुकार रही है।वंशी की धुन ही सुन पा रही है।काले राजस्थानी लिबास में लिपटी,वहीं के हार श्रृंगार में सजी वो कठपुतली सी ही घूम घूम कर नाच रही है।दूर दूर तक कोई नहीं।ऐसी भावदशा में बंद नेत्रों से कन्हैया को पास खड़े वंशी बजाते देख रही है और हाव भाव ऐसे कि जैसे श्यामसुंदर की बातें सुन कभी लजा जाती है तो कभी हंस देती है।ऐसे ही पूरी रैन प्रियतम संग कब बीती नहीं जानती।सुबह होते ही फिर बोल पड़ती है
तुम हो तो ये एक नई सुबह है।तुम ना उठाते तो सोई ही रह जाती।इतना प्रेम करते हो कि तुम गए ही नहीं और एक मैं हूँ जो तुम्हारे संग होते भी सो गई।
हाए।कैसी निगोड़ी निद्रा कि मैंने एक बार आँख खोल देखा ही ना कि तुम मेरे पास बैठे जाग रहे हो।
ऐसा कहते कहते रोने लगती है।कुछ देर में होश संभाल फिर उसे याद आता है कि देर हो रही है।प्रियाप्रियतम जु कजरी संग वन में आते ही होंगे।
ऐ री वंशी
भूल हुई जो तुझे ले आई यहाँ।देर कराएगी मुझे।आज जाते ही श्यामसुंदर जु के हाथों सौंप दूंगी अन्यथा तुझ संग बतियाती तो मेरा सारा जीवन ही बीत जाए।अपने प्राणप्रियतम व प्रियतमा से विमुख जीना भी क्या जीना।
जल्दी से उठ नित्य कर्म व गौ पूजन निपटा कर भागती है निकुंज की ओर।राह में जाते जाते गाती गुनगुनाती राधे जु को अर्पण करने के लिए उनके मनपसंद गुलाबी गुलाबों को तोड़कर एकत्रित करती है कि सखियों संग बैठ गजरे और हार बनाऊंगी।कोई सखी जो ज़रा भी उससे पूछ बैठती
ऐ री सोई ना तू रात भर
तो वो फिर से बीती रात की ही यादों में खो जाती और सखियों से छुपाती भी कि ना जाने ये मेरा अविश्वास ही करेंगी और कहती
मेरी छोड़ो,ये कहो कि रात श्यामसुंदर जु और श्यामा जु की कैसी कटी होगी!तो सभी सखियन अपने अपने भाव रखतीं।
रात भर तो श्यामसुंदर जु सोए ही ना हैं।कजरी,वंशी और श्यामा जु की दूरी उनके लिए असहनीय ही रही होगी ना।
वहीं दूसरी ओर सभी घरवालों के सो जाने के बाद राधे जु तो कजरी के पास आ बैठीं और घंटों उससे अपने प्रियतम की ही चंचलता भरी बातें करतीं रहीं और कजरी प्रेमाश्रुओं से श्यामा जु के पद पखारती रही।
चारों की विचित्र दशा।
और तो और वंशी की भी।
पगली सखी यूँ ही पूछ बैठती है वंशी से जिसे उसने अपने लहंगे में अड़ा रखा है और उसकी चुनरी से वो झांक रही है।
ना जाने कब आएं मेरे प्राणवल्लभ!
पूछते ही फूट पड़ती है कैसी बीतती होगी तुम सब की रैन प्रिय बिन
वैसी ही मेरी कटी।पूरी रात ना सो सकी।कान्हा जु के तकिये के नीचे जो नींद आती है वो कहीं कैसे आ सकती है भला।अपने प्रियतम के अधरों से लगने का सुख सोच सोच पूरी रैन रोती ही रही।उनका मुख ना देख सकी तो सोती ही कैसे?
क्रमशः•••••••

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