गोपाल'संग'कजरी गाय-8
तुम ढूँढो मुझे गोपाल,मैं खोई गईंया तेरी
कजरी गाय यही सब कहते कहते सो गई।सोई नहीं सुषप्ति में कहीं खो गई।सोई तो वो तब थी जब तुच्छ संगिनी उसे अपनी तुच्छ संसार में ले गई।अब तो वो जाग गई है।ऐसे कैसे दिव्य स्वरूप से साक्षात्कार कर लेने के बाद वो भटक जाती?कैसे वो गहरी निद्रा में सो जाती?
कजरी तो जागृति है।
प्रभु मिलन के बाद निद्रा आ ही कैसे सकती है!तब तो प्रभु चिंतन में दिन रात की सुधि कहाँ रहती है!और निद्रा और निद्रा अवस्था के स्वप्न तो संसार ही की एक वृति है।कजरी को नींद कहाँ?
वो तो पुकारती रहती दिन रैन अपने प्रियतम प्रिया को।आज कजरी गहनावस्था में थी।उठी वो भोर में पर फिर कहीं खोने के लिए।झकझोर कर मनमोहन श्यामसुंदर जु ने उसे उठाया।काँप कर उठी वो।देह में था भारीपन दर्द उसके भीतर का था बाहर आया।
श्यामसुंदर जु समझ गए कि आज कजरी यहाँ निकुंज में नहीं है।उनकी प्यारी ने स्वप्न देख लिया है।व्यतिथ है वो।ये मेरे और राधे के दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार पा चुकी अब आज आत्मसाक्षातकार की बारी है।
अद्भुत।भक्त वत्सल भगवान की भगव्दप्रेमियों के संग अद्भुत प्रेम लीलाऐं।पहले तो जीवन दान दिया मुख से उच्चारण दिया।भक्त को साक्षात्कार दिया।लो फिर प्रलोभनों का स्वाद चखा दिया।संसार का सच्चा झूठा सब खेल दिखा दिया।
देखो री पगली संगिनी फिर कान्हा ने क्या किया।हाँ वही तो कारण कर्ता सब होनी अनहोनी के करने वाले।
खेल जगत के न्यारे करते वो न्यारे न्यारे रूप अनूप वही धरते।ये संसार तो झूठा आईना है।खेल खेल में मटकी फोड़ माखनचोर कृष्ण कन्हाई इसे सकते हैं तोड़।
सच्चा जगत तो वे खुद हैं और उनका नित्य निकुंज ही है सच्चा।
भगवान अपने भक्त को देह प्रदान कर जगत में तो भेज देते हैं पर पग पग पर खुद उसका मार्गदर्शक बन साथ चलते हैं।खुद ही वो तरह तरह की लीलाऐं रचते हैं।पहले तो वो अपने ही जगत का साक्षात्कार देकर जीव को सच्ची राह चलाते हैं।फिर उसे सच्चा भक्त बनाने को संसार में भेज कर उसका तन मन टटोलते हैं।देख कर सुंदर पर झूठे प्रलोभनों को या तो प्राणी भटकेगा।भटक गया तो सांसारिक दलदल में फंसता है।फिर जब देखता है दूसरा पहलु दुःख दर्द का तो उसकी परीक्षा होती है ।या तो वो टूट जाता है या फिर अगर प्रभु कृपा हुई तो भक्त बन उठ जाता है।उठना भी दो तरह का है।उठ कर भक्ति की राह चले तो चल पड़े नहीं तो संसार से भागने का भक्ति को एक जरिया भी बना लेता है।तंत्र मंत्र और पाखंण्ड के सहारे खुद ही जग की तस्वीर बदल देता है।जगत और भक्ति भगवान से दूर अपना ही नया जगत बसा लेता है।
पर इससे भी ऊपर उठा हुआ एक प्रेमी भक्त होता है जो भक्ति को अपना कवच बनाकर सब सच्चे कर्ताधर्ता को अपने जीवन की बागडोर सौंप देता है।यह होता है वही प्राणी जिसे फिर भगवान चलाते हैं।कुंदन से जिसे वे हीरा बनाते हैं।उबारते हैं उसे सब दुःख तक्लीफों से फिर उसे भक्ति की राह पर चलते आत्मसाक्षात्कार खुद ही कराते हैं।अपने इस प्राणप्रिय भक्त को लौट आया जान अपना स्नेह दान लुटाते हैं।उसे वो हर पहचान दिखलाते हैं।यही वो भक्त होता है जो संसार में रह कर भी भगवदसच को भूलता नहीं।उसके लिए ये माया एक स्वप्न हो जाती है और ये जान जाता है कि सुंदरतम भगवान का लीलाधाम ही सच्चा है।तब वो इस जगत से उठता है।संसार के दुःख सुख देखकर फिर वो भटकता नहीं।अनछुआ ही वो कर्म और कर्तापन भगवदार्पण कर खुद मौज मस्ती और आनंद में विचरता है।भयमुक्त इस देह को खिलौना समझ वो आत्मिक साक्षात्कार करता भगवान को इहलीला की बागडोर सौंप उनको अपना दास कर लेता है।लाखों में से कोई एक ही देहाभान से उठकर परम आत्मा से जा मिलता है।ऐसा भक्त भगवद प्रेमी बनकर स्वज्ञानी भी होता है।
लो ये भी तो कृष्णलीला है।संगिनी फिर तुम कहाँ थी देखो कहाँ आ गई।कजरी अरे हाँ कजरी को कन्हैया आत्मसाक्षात्कार करा रहे हैं।क्षमा करो कजरी मईया तुम्हें यहाँ ना लाना था।
देखो तो भोले से श्यामसुंदर की भोली सी लीला।उठा दिया है उन्होंने कजरी को।प्यारे से कृष्ण कन्हाई भूमि पर ही बैठे हैं और प्रिय कजरी को देखो तो गीता का उपदेश ही दे देते हैं।और नहीं तो क्या उपदेश ही तो है हर जीव के लिए ये प्यारी कजरी।प्रभु की आँखों में आँखें डाल बैठी है।बोल नहीं सकती तो क्या सुन तो सकती है ना।कान्हा जु की कृपा दृष्टि से सब कुछ समझ गई है।
कहती है अब ना कभी आईने में भी अपना मुख देखुंगी।
देखुंगी तो केवल घनश्याम को ही देखुंगी
समाज सुधारक नहीं आत्मशुद्धि ही करूंगी।सब कुछ अर्पण कर खुद मुक्त अब रहूंगी।
प्रेम रस सुधा में ही बहुंगी।
अरी संगिनी अब तो मैं सदा नित्य निकुंज में ही रहूंगी।
हाए प्यारी भोली भाली कजरी अपने नटखट गोविंद गोपाल संग सब भुलावों से उठ गई।आहा आनंद ही आनंद।
सुनो संगिनी इस आईने पर जो धूल जमी है
उसको ना तुम देखो अभी
आँखें निर्झर बहती हैं आत्मा ही खुद धुल जाती है
छोड़ो नहीं बनना समाज सुधारक कभी
ये जग अपने बस की बात नहीं
करेंगे खुद राम भली
तुम कहाँ इतनी सक्षम हो
विजय पाने को आएँगे खुद वेश धर फिर से हरि
सीख लो इक पाठ सजनी बाँध लो पले ये बात मेरी
आत्मशुद्धि ही कर लो परमात्मा से आए मिलो
ये संसार तो है माया इसे ना तुम बदल सकोगी
पर नित्य निकुंज कोई खेल नहीं
कहो और बहो तुम अनछुई रसधार में
कजरी हो जागृति प्रेरणा बनो बनो मत ढाल तुम्ही
जय जय मेरी कजरी माई की
अब और क्या कहूँ बस यही कि कजरी को कन्हैया ने चुन लिया है।निकुंज को कजरी गईया अब निकुंज में ही रहेगी श्यामाश्याम जु के रंग ही रंगेगी।
प्रिय श्यामसुंदर यही यही चाहिए और बस तुम ही
जय हो
जय जय हो
क्रमशः•••••••
Comments
Post a Comment