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गोपाल संग कजरी गाय भाग 9

गोपाल'संग'कजरी गाय-9

आत्मसाक्षात्कार के बाद सब बदला सा है।महकी महकी सी पवन के साथ सुगंधित पुष्पों का मेला लगा है।यमुना का तट आज हर बार से अधिक हरा-भरा है।पक्षियों का संगीत और वन्य जीवों के झुंड आज झूम झूम कर प्यार के तराने गा रहे हैं।पेड़ों की सम्पदा झुक झुक कर खुद को लुटा रही है।धरा पर नव बीज आज अंकुरित होते पुलकायमान हैं।आकाश भी आज झुका सा है।
ग्वालबाल व ब्रजांग्नाऐं आज अत्यंत पुलकित व अपनी नित्य सेवा में पूर्ण लग्न व स्नेह से जुटी हैं।पहले भी सब था ही पर आज जैसे इस सबसे जुड़ा एक परम उद्देश्य उजागर है।बाहर का अह्लाद भीतर के उन्माद को जगा कर उमंगित कर रहा है।विभिन्न ही आज की भावदशा है।प्रकृति आज अर्थहीनता से टूट कर अनुत्तरित सोम्यता को पा गई है।आज लग रहा है सब कुछ किसी कारण से ही किसी खास के लिए ही घट रहा है।हर सजीव के जीने की एक खास ही वजह है।आज संसार से नाता टूट कर अलौकिक से जुड़ा है।
यहाँ निकुंज की धरा आज धरा नहीं आसमान ही लग रही है।आसमान जो बाहें पसारे हुए भीगे अश्रुजलपुरित बादलों में से छांट कर इन्द्रधनुषी रंग चुन रहा है।जिसकी दिव्यता और आभा सूर्य की किरणों सी तपित नहीं बल्कि शीतलता से जग को प्रकाशित करती है।
इसी शीतलता में नहाई हुई कजरी~~
हाँ कजरी ही की बात कर रही हूँ।आज कजरी उसी इन्द्रधनुष की शीतलता में नहाई हुई मोहन संग वन प्रस्थान कर चुकी है।आज वो सिर्फ अपनी सुंदरता से आकर्षित करने वाले गोपाल नहीं कोई जादूगर नहीं अपितु आज श्यामसुंदर जु पूरी प्रकृति के कान्त हैं।ये सब वही ही तो हैं।
प्रकृति क्या??
प्रकृति जो वास्तविक सम्पदा है धन दौलत पूजनिए माँ लक्ष्मी है।ये प्रकृति वही माँ सीता हैं जो कभी धरती में से जन्म लेकर धरती की ही गोद में समा गई थी।ये वही है जो विरहअग्नि में तप कर कभी तपस्विनी बन अपने कांत से जुदा हुई थी।आज वही सम्पदा ही तो बीज बन अंकुरित हुई है अपने प्रियवर के आलिंगन को पाकर पूर्णा होने को।ये उसी तपस्विनी की शक्ति ही है जो परम के हृदय में सम्माहित हुई आज अह्लादिनी राधे जु हुईं हैं।
कजरी असीम की भी परिसीमा से मिल एक नया रूप बन आई है।अब ये सघन वन ही उसका घर है और यही असीम अह्लाद जो उसके रोम रोम में भरा है उसका सर्वस्व है।
कजरी इस प्रकृति का एक अटूट अंग है।करूणा की मिसाल इसी प्रकृति की एक बेमिसाल संतान हे कजरी।
कजरी आज कान्हा के संग नहीं बल्कि अपने प्राणनाथ की छत्रछाया में वन की ओर प्रस्थान कर चुकी है।राह में कितनी ही दूर दूर तक वो श्यामसुंदर जु की प्राकृतिक अनुकृतियों में खोई हुई सी चल रही है।उसकी नज़र आज एक एक गाय पर जा टिकती है मानो आज सब ही प्रभु का गुणगान ही कर रही हों।छोटे छोटे बछड़ों के साथ गईयां चरती और यमुना जु के शीतल जल का आनंद लेतीं हैं।थोड़ा और आगे जाती हैं तो देखती हैं कन्हैया के मित्रगण उसका इंतजार कर रहे हैं और कुछ तो नन्हे नन्हे बछड़ों के साथ भिन्न भिन्न खेल खेल रहे हैं।सब सखाओं में अपने अपने गाय बछड़ों के साथ अभिन्न स्नेह है।वे उन्हें पूरी तन्मयता से गौचारण के लिए वन लाए हैं।
उनके खेल के रंग निराले हैं।कोई तो गाय के सींघ पकड़े हैं तो कोई उसकी पूंछ।कोई गाय की नकल उतार रहा है तो कोई उसके नीचे घुस कर बैठा है।कई एक तो गायों को ही ढाल बना कर पकड़ने पकड़ाई व छुपन छुपाई भी खेल रहे हैं।कोई उसकी आगे की दो टाँगें ऊपर उठा कर पीछे के पैरों से चलाता है।कोई उन्हें यमुना जु के छोर पर शीतल जल पिला रहा है तो कोई नहला भी रहा है।छोटे बछड़ों को अपने नन्हे नन्हे हाथों से चारा खिलाना तो ग्वालियर सखाओं का विशेष स्नेहपूर्ण कार्य है।कजरी यही सब देखती देखती आज उन्मुक्त हुई वन आई है।
आते ही सब ग्वाल बाल दौड़े आते हैं कृष्ण की ओर।कजरी की कुशल पूछते हैं।
आज इतना विलम्ब क्यों मोहन!जरूर इस कजरी ने आज फिर से तंग किया होगा।
क्यों री कजरी काहे तंग करै है तू यशोदानंदन को।कभी खाती नहीं है तो कभी सोती नहीं है।आज तुझे ठीक करना ही होगा।कान्हा आज हम कजरी की सवारी करेंगे।ये श्रमित होगी तभी खाएगी भी और सोएगी भी और तुम्हें तंग भी नहीं करेगी।कजरी को खुशमिजाज़ देख कान्हा कजरी की तरफ से हाँ कहते हैं और खेल शुरू करते हैं।
पहले छोटे बालसखाओं को सवारी कराई जाती है।कजरी बड़े स्नेह से उन्हें पीठ पर बिठा कर थोड़ी दूरी पर उन्हें उतार देती है।फिर बारी आती है बड़े ग्वाल सखाओं की जिन्हें कजरी खेल खेल में धरती पर पटक रही है क्योंकि वे भी बड़़ा उत्पात मचाते हैं और कजरी को बार बार करारी थपकी दे डालते हैं।कजरी भी उनके साथ वैसा ही हास्यास्पद व्यवहार कर रही है।
अब आखिर में कजरी कन्हैया के पास आ खड़ो होती है और उन्हें बैठाना चाहती है।कन्हा कजरी से प्रेमपुर्वक हाथ जोड़ नहीं गिराने का आग्रह करते हैं और उसकी पीठ पर उसे पलोसते हुए कहते हैं 'चलो माते' जिसे सुन सब हास्य परिहास करने लगते हैं।कजरी अत्यधिक आनंदित है और झूम झूम कर कन्हैया को जैसे झूला ही झुला रही है।श्यामसुंदर भी कभी कजरी की पीठ पर खड़े हो जाते हैं तो कभी पेड़ों की डालियों से लटक जाते हैं।कजरी पर बैठे ही कभी लेट कर वे कई बार ऊपर नीचे झुकते उठते खेल खेलते हैं और सबको हर्षित करते हैं।
अंत में कन्हैया उसके ऊपर ही आसमान की तरफ मुख करके टाँग पर टाँग रख कर बड़े आराम से लेट जाते हैं और वंशी बजाने लगते हैं।सभी बड़े आनंद मग्न हुए नाचते गाते कान्हा जु की कजरी सवारी का लुत्फ उठा रहे हैं बिल्कुल जैसे जगन्नाथ जी की रथयात्रा ही हो।चारों दिशाऐं भी कन्हैया के मधुर संगीत से रसमय हो उठी हैं और कन्हैया का ये रवैया अपनी कजरी का यश बढ़ा रहा है।
कुछ दूर जाते ही मदमस्त हथिनी सी चाल चलती कजरी थम जाती है और ग्वालबालों का नाचना गाना भी रूक जाता है।कन्हैया तो अभी भी वंशी ही बजा रहे हैं कि अचानक एक सखी राधे जु के कहने पर वंशी उनसे ले लेती है।कृष्ण बिना देखे कहते हैं कि क्या हुआ सब एक दम शांत क्यों हो गए।
का री कजरी थक गई है री तू?रूक काहे गई?और मेरी वंशी!!कहते कहते कान्हा बड़ी नज़ाकत से नीचे उतर आते हैं और किसी के भी जवाब ना देने का कारण पूछ जैसे ही मुड़ते हैं तो खुद भी सन्न से खड़े रह जाते हैं।
अरी किशोरी राधे तू कब आई री?
कोई उत्तर नहीं।श्यामा जु अपनी कमर पर हाथ रख कर खड़ी हैं।माथे पर सल,कमर पर बल।बोलती कजरारी आँखें,नाक लाल,गालों पर तेवर और तनी हुईं भोहें।मान करती राधे के तिलमिलाते होंठ।हाए।।छोटी सी मतवाली चित्तवन वाली किशोरी जु पर बलिहार।
पर ना जाने अब आगे क्या हो?
क्रमशः••••••

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