Skip to main content

मौसम कोई भी हो , संगिनी

मौसम कोई भी हो।राधे मोहन के प्रेम की बरसात सदा है।अनवरत कभी प्यास तो कभी तृप्त पर बिना रूके चलती रहती बढ़ती ही रहती।रसिकेश्वर श्यामसुंदर सदा तृषित ही रहते और श्यामा जु रसवर्षिणी भरपूर रस बरसाती सदा कृष्ण हर्षिणी और चिरसंगिनी ही रहतीं।भिन्नता भी पर अभिन्न ही।
कभी पलक झपकने तक की दूरी अविरल विरह तो कभी पलक झपकते ही गहन आलिंगन की अनुभूति कराती।कभी खुद को दोनों में तो कभी दोनों में एक खुद को ही पाते प्रियाप्रियतम।कभी एक तो कभी दो भिन्न स्वरूप।
आज की लीला कुछ इसी तथ्य पर आधारित घटी।उनकी सम्पूर्ण लीला पर मेरी अपूर्ण अभिव्यक्ति।
निकुंज में सावन की ऋतु तो सदा ही है।ऋतु का हाल तो सदा ही कहा अद्भुत ही है हर बार की तरह।प्रेमपूरित,अभिन्न इस मायातीत युग से।जहाँ युगल निवास करते हों वहाँ तो हर रंग रस संभवतः अलौकिक या सीधे सीधे कहुं तो पारलौकिक वाणी से परे।
श्यामसुंदर व श्यामा जु संध्या समय टहल रहे हैं निकुंज में हाथों में हाथ लिए।सब सखियाँ रात्रि भोज व श्रृंगार की व्यवस्था में लगी हैं।व्यस्तता इतनी कि जैसे पलक झपकना भी नहीं सुहाता सखियों को।प्रियाप्रियतम के रसविलास व सुख के लिए अनथक अनवरत प्रयास।
श्यामसुंदर जु चलते चलते प्रिया जु की अत्यधिक सुंदरता को निहारते जा रहे हैं।ध्यानमग्न प्रिया जु में।प्रिया जु भी बीच बीच में श्याम जु को निहार लेतीं हैं पर बड़ी नज़ाकत से नज़र चुरा लेतीं हैं।श्यामसुंदर जु प्रसन्न तो होते ही हैं पर साथ ही साथ उनके मन में भी शरारत ही भरी है।प्रिया जु को खिलखिलाते हसता देखने के लिए वे बार बार कभी कहाँ तो कभी कहाँ खुद को टकराते हैं जिस पर श्यामा जु ज़ोरों से हस पड़तीं हैं।उनकी खिलखिलाहट से निकुंज संगीतमय हो उठता है।
पर अब कुछ अलग ही चाल है श्यामसुंदर जु की।वे अब अन्यंत्र कहीं ना टकरा कर श्यामा जु में ही टकरा जाते हैं और कोमल श्यामा जु गिर ना जाएँ इसलिए उन्हें कमर से थाम लेते हैं।प्रिया जु सब समझतीं हैं पर वो श्यामसुंदर जु से दो कदम की दूरी पर चलने लगतीं हैं।
कुछ देर खामोशी से चलने के बाद लाल जु एक अति कोमल गुलाबी गुलाब का पुष्प तोड़ लेते हैं और बड़े प्यार से प्रिया जु को अर्पित करते हैं।श्यामा जु पुष्प स्वीकार नहीं करतीं।श्यामसुंदर जु अब धीरे से पुष्प को प्रिया जु के गाल पर मारने लगते हैं कि प्रियाजु ज़रा हट जातीं हैं और पुष्प उनके कर्णफूल में लगाकर झड़ जाता है और उसकी कोमल पंखुड़ियाँ उनके चरणों में आ गिरती हैं।पुष्प के बिखरते ही श्यामसुंदर जु नीचे बैठते हुए श्यामा जु के आगे झुककर उनकी राह रोक कर बैठ जाते हैं और प्रिया जु को नख से शिख तक निहारने लगते हैं।श्यामा जु कुछ भी समझ नहीं पा रहीं हैं और वे भी वैसे ही श्याम जु के समक्ष बैठ उनसे पूछती हैं
क्या हुआ प्यारे जु?आपका कुछ खो गया है क्या?
श्यामसुंदर जु मुस्करा देते हैं और श्यामा जु से कहते हैं
देखो ना श्यामा जु आपके कर्णफूल से वो पुष्प टकरा कर बिखर गया पर बिखरते बिखरते जब इसने आपके कान के झुमके को ज़रा हिलाया तो उसकी चमक से एक बार तो मेरी आँखें चौंधया सी गईं और जब मैंने गौर से आपके झुमके की लटकन के चमकीले हीरे में देखा तो मुझे अपना अक्स नज़र आया।एक एक कर आपके अंगों से लिपटे एक एक आभूषण में मैं खुद को देख पा रहा हूँ और सोच रहा हूँ ये कैसा कौतुक हैं!
ये सुन श्यामा जु मुस्कराते हुए और लजा कर लाल जु से कहतीं हैं
क्या सत्य कह रहे हो तुम?
अच्छा तो बताओ और कहाँ कहाँ हो तुम?
श्यामसुंदर जु उठ कर श्यामा जु को उठाते हूए उनके कोमल अंगों को छूते हुए कहते हैं कि
देखो प्रिय,मैं तो तुम्हारे रोम रोम में से तुम्हें ही निहार रहा हूँ।प्रत्येक अंग में भरा हूँ तुम्हारे।एक नहीं कई भिन्न भिन्न स्वरूप हैं मेरे जो तुम में झिलमिला कर फिर तुम में ही समा रहे हैं।
श्यामा जु ये सुनकर इतरा देतीं हैं और कहतीं हैं
हाँ श्याम जु हम आप से इतना स्नेह जो करते हैं ।आप बताओ आप कितना स्नेह करते हो हमसे।
ये सुन श्यामसुंदर जु प्रिया जु का मुख अपनी ओर मोड़ते हुए कहते हैं
मेरी तरफ देखो तो जानो।
श्यामा जु कुछ शर्माकर श्याम जु की आँखों में देखतीं हैं और फिर खुद को उनसे लिपटा हुआ ही पातीं हैं।ये देख वो आश्चर्य से भर जातीं हैं और फिर उनसे लिपटी अपनी देह को जब छूतीं हैं तो वो खुद को नहीं बल्कि श्यामसुंदर जु को ही छू रहीं हैं।
श्यामा जु की छुअन से कान्हा जु सिहर जाते हैं और जो छवि श्यामा जु ने अभी श्यामसुंदर जु में देखी वैसी ही छवि श्याम जु श्यामा जु में देखते हैं और खुद को श्यामा जु से वस्त्र की भांति लिपटा हुआ पाते हैं।
अद्भुत निराली है ये छटा।कोई बता ही नहीं सकता कि वे दो अभिन्न देह हैं या एक ही देह में दो समाए हैं।श्यामा श्यामसुंदर दो हैं ही नहीं।लीलामात्र वे दो भिन्न स्वरूप नज़र आते हैं पर भिन्न हैं नहीं।दोनों एक दूसरे को निहार रहे हैं और निहारते निहारते दोनों एक दूसरे में समाकर एक ही हो जाते हैं।अब कहा ही नहीं जा सकता
'कौन कौन में गयो समाए'
यह छवि निहारत निहारत मैं तो गई खोए
हृदय में वीणा बजे और
अधरों पर वंशी
बाहर दिखें श्याम ही
भीतर राधे राधे होए
मन मंदिर में बसाकर सखी
संगिनी निहाल युगल छवि पर होए

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात