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आज मईया कुछ परेशान है , लीलादर्शन संगिनी

आज मईया सुबह से कुछ परेशान सी हैं।भवन के कामकाज से नहीं ना ही नंदबाबा के स्वास्थ्य को लेकर।उनकी बेचैनी अपने लाल के लिए है।
                         सर्वत्र रस बरसाने वाला व सबको आनंदित करने वाला मेरा लल्ला अब कुछ गुमसुम सा ही रहता है।पहले इतना नटखट था और पूरा दिन शरारत ही सूझती थी उसे।बालपन में हर तरह से वो मेरे ममत्व को जगाए रखता था।कभी हस बोल कर तो कभी खेल दौड़ कर।गोपियों के उलाहनों में और सखाओं के झगड़ों में,दाऊ के साथ मिल मस्ती में और अपने बाबा साथ नन्ही नन्ही सी अठकेलियों में।हर रूप में घर आंगन में बचपन खेलता और उसके चेहरे पर तो हंसी हंगामे की फुहारें।तब अपनी पायलों की रूनझुन रूनझुन से मुझे गाने और ग्वालनों को कठपुतलियों सा थिरकने पर मजबूर करता था।चंचलता से भरी नोक झोंक और जिद् से भरी रूठने मनाने की खट्टी मीठी बातें मेरी ममता और उसके बचपन को परिपूर्ण बनाती थीं।वो नन्हा सा जैसे जानता था तब कि माँ से कैसे स्नेह पाना है और कैसे उनके ममत्व को रस देकर उन्हें पूर्णता का एहसास कराना है।
                                  पर ना जाने अब किसकी नज़र लग गई है।पहले जैसा कुछ भी नहीं।होगा भी कैसे अब लल्ला कोई बच्चा तो रहा नहीं जो पहले जैसे नाचे कूदे।तब फिर मईया की बेचैनी का कारण।बस यही कि मईया बहुत भोली है।उसके लिए तो कन्हैया लल्ला ही है।वो क्या जाने कि वो उसके लिए भले ही बच्चा ही हो पर खुद के लिए तो बड़ा हो ही गया है ना।अब वो मईया की गोदी का नन्हा सा लाल तो नहीं रहा ना।अब तो वो श्यामसुंदर जु हैं ना।                
                   पहले जिन ग्वालनों के इशारों पर वो मक्खन और छाछ के लिए नाच दिखाता था अब सब तो उसकी मुरली की धुन में अपना नाम सुनने को बेचैन रहती हैं और उसे एक बार निहारने के लिए घंटों उसका इंतजार करती हैं।पर अब कान्हा का मन तो सखियों को रिझाने में लगता है जो दधी माखन की मटकियां सर पर धर घुंघट औढ़ के कान्हा की इक नज़र पाने को तरसती हैं और दिखावा ऐसे करतीं हैं जैसे कन्हैया राह में ना ही मिले तो बेहतर।भीतर व्याकुलता और चेहरे पर शरारत जैसे सब की सब खुद ही कभी राधे तो कभी कान्हा ही हों।
                           और मेरे श्यामसुंदर!!
हाए!सबके हृदय की जानने वाले।उनको तो सबके हृदय की बात पता ही है और हर एक की मन की बात पूरी करना ही उनके जीवन कानहा लक्ष्य ही हो जैसे।क्योंकि प्रेम है ना ये^=^💞                      
                             अब आज जब मईया की इच्छा है कान्हा के बचपन में लौटने की तो भला कन्हैया कैसे ना पूरी करेंगे।लो हो गई बालसखाओं के संग मिल तैयारी बालक्रीड़ा की।😉😍
                  नित्य निकुंज में जहाँ बनवारी के आने से मुरली की मधुर धुन के साथ पक्षियों का चहचहाना और यमुना जु के जल की कल कल से पूरा ब्रह्मांडगूँज उठता है आज वो संगीतमय ध्वनियां नहीं हैं।सब एक दम शांत है।प्रकृति के सभी रंग हैं और महक भी वही।लेकिन आज कोई भी नज़र नहीं आ रहा।
          सखियाँ ये देख आश्चर्यचकित हैं कि आज कन्हैया और उसके सखा अभी तक आए क्यों नहीं।पहले तो वे जैसे समझ ही जातीं हैं कि आज पुरवाई में कन्हैया की महक के साथ साथ जैसे कोई दृष्टि भी है जो कुछ अलग ही साजिश भरी सी प्रतीत हो रही है।पर फिर जब और कुछ देर वही रहस्यमय आवरण सा बना ही रहता है तो सखियों को व्याकुलता होने लगती है क्योंकि आज अभी तक प्रिया जु भी नहीं आईं हैं।
                श्यामसुंदर जु को बहुत ढूंढने के बाद और पुकारने के बाद भी वो नज़र नहीं आ रहे।पर वही एहसास हो रहा है कि जैसे कोई उनका पीछा कर रहा है।वे अपना ध्यान बंटाने के लिए कुंजों को सजाने लगतीं हैं विभिन्न पुष्पों से।पर कब तक।आखिर उनके सब्र का बाँध टूटने लगता है और राधे नाम की आतृ ध्वनि के साथ वे विरहनें जमीन पर लोटकर गोपीगीत गाने लगतीं हैं।
        अब भला कैसे मोहन अधीर गोपियों को देख धीर धरते तो तभी निकुंज के दक्षिण की तरफ से पायल चूड़ियों और हंसी की खिलखिलाहट से शुष्क वातावरण को रंगीनियाँ प्रदान करती मधुर ध्वनियाँ सुनाई देने लगतीं हैं।सखियाँ उठ भागती हैं और दूर से ही राधे जु के साथ सखियों का समूह आता लेख प्रसन्न हो जाती हैं और उनकी राहों में पुष्प वर्षा करतीं पूरी धरा को जैसे पुष्पों की चादर ही औढ़ा देती हैं।
                निकुंज में जैसे रौनक लौट आई हो।पक्षीगण भी अब खुद को रोक नहीं पा रहे और प्रिया जु का स्वागत नाच नाच कर व गा कर करते हैं।मयूर अपने पूरे रंग बिरंगे पंख फैला रहे हैं और कोकिल तो जैसे अपनी मधुर वाणी से मनमोहन श्यामसुंदर को ही पुकार उठी है जिसे सुन श्यामा जु समझ जातीं हैं कि आज कन्हैया अभी तक आए नहीं हैं और वे सखियन संग पहले आ गईं हैं।वे तो प्रसन्न हो रहीं हैं कि आज तो कान्हा की खैर नहीं।देर से आने की सज़ा तो मिलेगी और खूब आनंद बरसेगे आज।
               श्यामा जु सखियों से इसी बारे में चर्चा कर ही रहीं हैं कि अचानक तमाल व कदम्ब के सघन वृक्षों के पीछे से मधुर धमनियों को चीरते सरसराहट की ध्वनि से यकायक कुछ कंकर आ लगते हैं सखियों की मटकियों पर।
                     मटकियों में भरा मक्खन दधि और छाछ वहीं राह चलती सब सखियों पर ही फूट कर बहने लगता है।कोई मक्खन से तो कोई दही से लथपत है और कोई छाछ से नहाई हुई चौंक गई है।जैसे ही सब सखियाँ पीछे मुड़कर देखती हैं सारे सखा तो वहाँ से भाग निकलते हैं पर कान्हा वहीं हर एक एक गोपी के सामने उतने ही रूप धर उसके भाव से समक्ष आते हैं।
          आश्चर्य कि आज उन्हें सखियों में राधे जु के साथ साथ मईया भी हैं।जहाँ राधे जु को श्यामसुंदर जु उनके नयनों में नयन डाले खड़े नज़र आ रहे हैं वैसे ही मईया को अपने भाव से कन्हैया में अपने भाव वाला नन्हा सा नटखट लल्ला ही दिख रहा है।सभी गोपियाँ मनमोहन कान्हा के नयनों में देखते देखते खोई सी चित्रलिखी खड़ी हैं।
               माँ को तो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे लल्ला उनके मुख को चूम चूम कर उस पर लगे मक्खन को चाट रहा है और उन्हें आनंद देते हुए खुद भी आनंदित हो रहा है।
                वहीं श्यामा जु तो श्यामसुंदर जु को निकट आते देख वहाँ से भागकर कदम्ब के पेड़ के पीछे जा छिपतीं हैं।श्यामसुंदर जु उनके पीछे पीछे खिंचे चले जाते हैं और पूछते हैं
राधे तुम यहाँ क्यों आ गईं?
श्यामा जु लजा जातीं हैं और नजरें झुका कर बस इतना ही कह पातीं हैं
अरे!प्यारे जु आप समझते ही नहीं।वहाँ मईया हैं ना........

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