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सावन की ऋतु घनघोर घटा रसीली , संगिनी

राधा-जित देखूं तित श्याम मयी
मोहन-जित देखूं तित राधा मयी

सावन की ऋतु घनघोर घटा रसीली पवन महकते वन अजब छटा
जैसे कोई आस पास ही है
प्रेम का पैगाम लिए
बरसात नहीं
ये रंग भरी रसपूर्ण इंद्रधनुषी तेज तरार प्रिय के आगमन की बरसात
रसभरी कटीली चित्तवन चातकी नज़र के आवन की दिव्य फुहार
जिसका बरसों से कर रही हूँ मैं इंतजार
श्यामसुंदर कभी दूर तो गए ही नहीं
आँखें मुंदते ही भीतर से प्रगटा जाते
प्रेम बरसाते बाहर से भिन्न पर भीतर से भीगे मन को अपना बनाते
बहते दृगबिन्दुओं को पोंछते
अधरों से अधर पर मुस्कन बिखेरते
आँखों से हृदय में उतर हर भाव समझते
मधुर वंशी की धुन पर होंठ थिरकते
पर आज नहीं।नहीं मोहन अब और नहीं
तुम सामने होते हो तो दो का एहसास कराते हो
चले जाओगे छोड़ ये गम संग लाते हो

एक सखी कह देती है मोहन की बाहों में भरी
आज मत बजाओ वंशी
अंक लगी को ना तड़पाओ
ना दूर जाओ पर ना पास आओ
ना देखो ऐसे कि गहराईयों में डूब जाओ
करो प्रेम प्रीति हूँ तुम्हारी
जताओ हक कि अपनी हूँ तुम्हारी
मानो मनाओ बिन रूठे ही
मत बजाओ ये निगोड़ी वंशी
देखो आज समा जाओ कि फिर जा ही ना पाओ कहीं
कान्हा आज तन से नहीं हृदय द्वार से आओ कि फिर जा सको ही नहीं
भीतर समाना कि दो होने का दम भर भी आसार रहे नहीं

देखते ही देखते शाम ढली
तन नहीं आज मन भी भीगे हैं रात छाने लगी
प्रेम की बदरी आई दरमियां सब भेद मिटा कर गई
इतराकर बोले मोहन
देखो तुम हो राधा मयी
भेद तुम में मुझ में और राधे में ना रहा कोई
सुनकर तुम सकुचाती हो
सिमट कर आलिंगन में बंध जाती हो
तब तुम होती हो राधा और मैं राधामयी
तुम प्रीति बन संग रहती हो
और राधा कृष्ण के बीच की दूरी को मिटाती हो
पर सुनकर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं
चलो आज तुम्हें दिखाता हूँ
तुमसे तुमको मैं मिलवाता हूँ

लीलाधर की लीला शुरू हुई
पल ना लगा मोहन नीलवर्ण राधा हुए
और गौरवर्ण कृष्ण खुद संगिनी हुई
देख राधे को समक्ष खड़े भेदभाव सब भूल गई
बिगड़े श्रृंगार को राधे के कान्हा बन संवारने लगी
संवरी हुई राधे के चरणों में बैठ प्रेमाश्रु बहाने लगी
खुले महकते गेसुंओं को अपने आप सजाने लगी
प्रीति की नीली तरंगों में बहते बहते प्रेम में डूबने लगी
डूबी हुई जब पाया खुद को तो हो गई श्यामल छवि
देख मोहन को समक्ष कृष्ण बनी फिर संगिनी हुई
पहले तो डरी सहमी थी फिर राज सारा समझ गई
मोहन ने जब भर लिया गहरे अंक में तो खुद रही ना वो कहीं
मोहन समा गए भीतर श्याम मयी हो गई

ना था ये मिलन देह का
आत्मा परमात्मा से मिली
मिलन हुआ समिलन आज
रूहें सब एक हुईं
छूते हैं श्याम श्यामा को ही
चाहे प्रेम के देह पर रंग चढ़े हों कोई
प्रेम जहाँ है जहां में
भीतर राधा और श्याम ही
कभी कृष्ण हैं राधा
तो कभी राधा कृष्ण हुई

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