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गुरु अर्पित संगिनी सखी भाव

गुरूअर्पित

निकुंज में आज गुरू प्रेमवर्षा व अनुराग बिखर रहा है।गुरु शिष्य अनुचर सब प्रसन्नचित्त परस्पर एक दूसरे को सम्मान दे रहे हैं।प्रियाप्रियतम जु की प्रगाढ़ छत्रछाया में गुरूजन अति साभारपूर्ण भाव में उनको सुख देने के लिए तत्पर हुए अनुचरों से आज निःसंकोच प्रेमपूर्ण याचना व दक्षिणा ग्रहण कर रहे हैं।हालाँकि इस सबका कोई श्रेय वे खुद ना लेकर श्यामाश्याम जु को अर्पण कर रहे हैं।उनको तो गुरु होना ही नहीं है पर जगत में जगतपिता की राह पर चलते और अधिकाधिक सहज अनुयायियों को प्रभुचरणों का आश्रय दिलाने व उनके गुरुप्रेम के चलते ये परम्परा वे बरसों से निभाते व दौहराते आ रहे हैं।
मञ्जरी किञ्करी व निकुंज की अनन्यान्य सेवाओं में जुटे आज सब व्यस्त हैं।मञ्जरियां उपमञ्जरियों की सेवा में व्यस्त हैं तो उपमञ्जरियां श्यामा श्यामसुंदर जु की सेवा में।
इस सब के बीच किञ्करियां भी हैं जो अपने गुरू मञ्जरियों की सेवा कर पाने के लिए मात्र हाथ जोड़े खड़ी हैं कि आज उनका भी ऐसा सौभाग्य हो।
प्रियाप्रियतम तो हैं ही बहुत दिलदार।सबकी भावनाओं की अत्यधिक फिक्र है उन्हें।इसलिए निकुंज में कुछ ऐसी व्यवस्था की गई है कि कोई भी अपने भाव से गुरु पुजा करने का अवसर ना खो दे।
ऐसी ही एक किञ्करी निकुंज द्वार पर खड़ी कृपा का इंतजार कर रही है।हाथों में पूजा की थाली लिए वह आज अपने हाथों से मञ्जरी सखी को भोजन भी परोसना चाहती है।इस दौर में वह वहाँ खड़ी यही सोच रही है कि
मैं तो निकुंज के द्वार पर पड़ा कंकर मात्र हूँ जो बुहारी में ब्रजरज से अलग कर बाहर फेंक दिया जाता है।सही ही तो है मेरी वजह से गुरु सखियों व प्रियाप्रियतम के कोमल चरणों में चुभ जाए तो मेरा होना ही अनर्थ है पर फिर भी मैं पाषाण हृदय द्वार पर ज्यों का त्यों पड़ा रहता हूँ कि शायद कभी किसी गुरुसखी की ठोकर लगने से मेरा अभिमान चकनाचूर होकर ब्रजरज में ही मिल जाए तो धन्य हो जाऊँ।ऐसा भाव लिए वह निकुंज द्वार पर खड़ी सखी आँखों में अश्रु लिए बस इंतजार ही कर रही है।
एक भाव जो और वह संजोए है वह यह है कि यहाँ का माहौल इतना सम है कि कोई किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझता।जब यहाँ की स्वामिनी जु ही किसी सखी को अपनी दासी ना मान सखी ही मानती है तो कोई भी मञ्जरी गुरू होकर भी खुद को गुरू नहीं मानती।सब एकसार एकरस प्रेमधारा से बहते हैं।
मंगला से सुबह के शयन का समय होने को है।आज गुरु सेवा की लय ऐसी बंधी है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही।ये सखी अभी भी अपने ही भाव में डूबी यही सोच रही है कि आज कितना कुछ सीख रही हूँ।कैसे सेवा मान करतीं हैं सखियां अपने प्रियगुरू सखियों का ये आँखों समक्ष देख सीख पाना सौभाग्य नहीं तो क्या है।
नहीं जानती खुद की कोई भी अवस्था।बस शांत खड़ी निहार रही है और देख देख डूबती जा रही है।क्या देख रही है ये!

सखी अपनी भाव सेवा में जहाँ प्रत्यक्ष राधारमण व राधिका जु को सर्वप्रथम भोजन अर्पित करती है वहीं आज समक्ष परम जगत गुरू गोपेश्वर महादेव की पुजा अर्चना कर उन्हें भोजन अर्पित करती है और फिर अपने गुरु तुल्य सखी को मञ्जरी सखी के वेश में देखती है।आश्चर्य भरा है उसके नेत्रों में और यंत्रचालित सी मञ्जरी सखी जु की तरफ बढ़ कर वह गुरु का मान देती है।उनकी पुजा अर्चना कर चरण स्पर्श करती है और अनुग्रहीत है अपने सौभाग्य पर।समस्त गुरु सखियाँ उनके संग उसे अपना स्नेहाशिष देतीं हैं।भोजन अर्पित कर अब वह बढ़ चली श्यामाश्याम जु की तरफ।
आँखें झुकी हैं।जा चूमती है प्रियाप्रियतम जु के कोमल चरणों को।चंदन सिंदूर अर्पित कर मस्तक धर देती है उनके चरणों में।समय का कोई पता नहीं कि अचानक प्रिया जु पुकार देतीं हैं
उठो संगिनी !!
पुकार सुन मंत्रमुग्ध हो गई।कुछ बोलती ही नहीं और समझ भी नहीं पाती नज़र कैसे मिलाए।प्रिया जु को फिर पुकारने में श्रम होगा यह सोच मस्तक उठाती है पर नज़र नहीं।पर आज सब मेहरबान हैं।फिर पुकारा
अरी सुन तो!!
अब पलक भर नज़र उठाती तो है पर निगोड़ी अश्रुपूरित निगाहों से सब धुंधला ही देख रही है।अब नेत्रों में रूके अश्रु बह जो चले।
प्रिया जु हाथ थाम लेतीं हैं।गोदी में रख सहलातीं हैं और वियोग और विरह की बदरी को हटातीं स्नेहिल सप्रेम आशिष देतीं कहतीं हैं
अरी तुमसे तो कहने भर की भी दूरी नहीं है मेरी और प्रियतम की।
कहते कहते गोदी में पगली का ज्यों ही सर रख लेतीं हैं तो लो ये तो आंसु भरी आँखों में जितने सपने लिए थी सब संग उड़ान भर चली।कोई अंत ही नहीं।बावरी ही है।आज तो और बौराए गई।
प्रियतम के कमलनयनों से उतर अधरों से जा मिली प्रियतमा और फिर प्रियतम का अधरों से सीधे हृदय प्रवेश।
लो सब समा ही गया।
ना ये बावरी ना इसका बांवरापन।
ना प्रिया जु ना प्रियतम।
सब एक
एक ही।।एक रूप।।
बह ही गई ये तो अपने ही बांवरेपन में।
गुरु सद्गुरू सभी को संग लिए
पगली प्रियाप्रियतम की
निकुंज द्वार पर खड़ी नाच उठी।पग घुंघरू कर मेहंदी माथे बिंदिया नव सुहागिन सी।
उन्मादित मञ्जरी सखी जु का हाथ पकड़े उनको भी संग नचा रही।
दोनों डूबी सखियां आज
कुंज कुंज में झन्कार उठी
प्रिया जु की वीणा
प्रियतम की वंशी ज्यों
कानों में इनके गा उठी
हुईं ये दोनों मधुर धुन सी
प्रेम भरे मंगल गीत
प्रिया जु प्रियतम को लिए गा उठीं
धरा बहकी अम्बर महका
थिरक थिरक कर पुरवाई उठी
कल कल कर यमुना बहे
संगीत करें सब पक्षीगण
रूनझुन रूनझुन भाव बढ़े
धरे ना आज धरती पर पग
आज कभी अम्बर पर
तो कभी आगोश-ए-महोब्बत में
इश्क का कोई नाम नहीं
श्यामाश्याम ही जीवनधन।।
गुरु संग प्रियाप्रियतम को रिझा रिझा कर
बावरी बावरी हुई।।
गुरू का हाथ थाम ही तो प्रियाप्रियतम नज़र आते हैं भीतर।।

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