Skip to main content

गुस्ताख़ सखी और प्रिय मनमोहन , संगिनी

गुस्ताख सखी और प्रिय मोहन

निकुंज में पेड़ की ठंडी छांव में
महकते गुलाबी गेरूए पुष्पों की कतार के परे
प्रेम परलिप्त मोहन के आगोश में
सिमटी सी एक गुस्ताख सखी
भावों में डूबी अर्धखुली आँखों से निहारती
लरजते अधरों से अपने प्रिय को पुकारती
मन में जो छुपाती उसे आँखों आँखों में बतियाती
श्यामा श्यामा उसके हृदय में
श्याम श्याम की ध्वनि मुख से आती
कहना है बहुत पर लाज की मारी
जानते तो हो मोहन तुम  सब
खामोशी को ही सजल संबल बनाती

क्या देख रहे हो
तुम्हें
क्यों
ऐसे मत देखो
दोनों यूँ ही अध लेटे और बैठे से
कान्हा के वक्ष् पर मुख धरे
प्रेम को प्रेम से निहारती सखी
कभी उठती पलकें कभी मस्ती में झुकीं सी
कान्हा का एक हाथ कमर पर और दूसरा सखी के मुख पर कभी गालों पर तो कभी होठों को छू देते।सखी सिमटी सी सकुचाई हुई पूर्ण समर्पण किए हुए अचाह में भी बस प्रेम की ही चाह लिए कभी कुछ कहती कभी चुप रहती जानते हो मोहन तुम हर अनकही भी।
अच्छा बताओ तो फिर
क्या चाहती हो तुम
नहीं कुछ भी तो नहीं
बस सिर्फ तुम
मैं 
क्या करोगी मुझे पाकर
करना क्या है
तुम संग रहो सदा
तुम जो इतना नेह देते हो
बस वही चाहिए
और क्या
तुम्हारे नेह से संवरती रहती हूँ सदा
क्या करोगी इतने नेह का
कितना और संवरोगी
क्यों कमी है क्या इस नेह में
ये तो अनंत है ना
कभी खत्म ना होने वाला
और चाहत की क्या बात
क्या प्रेम करना कुछ चाहना ही होता है
या करने से घटता है
बोलो
नहीं ऐसा तो कुछ नहीं
तो तुम बताओ तुम क्या चाहते हो
और क्यों मुझसे ज्यादा तुम्हें मुझसे महोब्बत है
नहीं कुछ नहीं
पर इस प्रेम का तो कभी कोई अंत नहीं ना
हाँ और ये बढ़ता ही रहता है
और और और और
हैना
हम्म्म्म् क्यों पूछा फिर
बढ़ाते रहो ना इस नेह को
देखो मोहन ये देह तो नज़र का धोखा ही है
तुम नेह तो मैं तुम्हारी प्रीति ही हूँ
इसे तुम समालो खुद में
तुम्हारी हूँ यूँ अब इस देह को भिन्नता में और जीना नहीं
तुम भिन्न होते हो तो चले जाते हो छोड़
पगली
तो किससे प्यार करूँगा और तुम्हें छूने का एहसास
सखी तभी कान्हा के मुख पर हाथ रख देती है
और कहती है
तुम पहले तो प्रेम करते हो पागलपन की हद तक
फिर मैं विरह में पल पल मरती जीती हूँ पागल बन
तो कब तक ऐसे ही खेलते रहोगे तुम बताओ
सुनो कान्हा अपनी इस पगली को अधर रस समझ पी लो लाली बनालो अपने अधरों की
अच्छा तो फिर क्या
तुम्हारे संग का एहसास रहे संगिनी को
तुम इसे अपना एहसास मात्र करदो
अभी जीती हूँ तुम्हें कभी कभी मरती हूँ खुद ही
तो तुम जिओ अब मुझे ऐसे कि मैं मैं ना रहुं तुम हो जाऊँ तुम में ही खो जाऊं
अच्छा
तो फिर
फिर क्या होगा
क्या करूँ तुम्हारे पागलपन का
क्या करूँ अधरों में भर कर इस लाली का
तुम ना क्या अब सब मुझे ही कहना होगा
तुम खुद कुछ ना समझोगे
नहीं तुम ही कहो
अरे इस एहसास को जी लेना जब मन करे
जैसे वंशी बजाते हो बस ऐसे ही जब चाहो तब ही
तब ये पागलपन तुम्हारा होगा
तुम पगले बन राधा जु को खूब नेह देना और इस लाली को राधे जु पर उंडेल देना उनके अधरों में भर देना।
अब कहो
क्या कहुं अब
अच्छा तुम्हें क्या मिलेगा यूँ
अरे फिर वही बात लेन देन की
मुझे कुछ नहीं लेना
कुर्बान होना है तुम्हारे और राधे जु के अनवरत प्रेम पर वही मेरी पूर्णता होगी और अधूरी संगिनी की सम्पूर्ण प्रेम कहानी
अपना एहसास करदो और मैं नहीं अब तुम ही जिओ बस

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...