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निकुँज गिलहरी , भाग 8 , संगिनी

भाग-8

अरे।ये क्या
सब सखियां एक दम से ज़ोर से हंसने लगी।मैं तो कहीं खो ही गई थी जाने ऐसा क्या हुआ होगा जो सब हंसी।पगली होना क्या है सखियों को ज़रूर कुछ शरारत सूझी होगी लो भला ऐसे कैसे वो सीधे सीधे प्रिया जु को कान्हा को सौंप देतीं।जितना समय वो श्यामा जु का श्रृंगार करती हैं उतना समय वो श्याम जु को इंतजार भी कराती हैं।ऐसे नहीं कि इसमें उनका कोई हित है वो तो रस को और गहन और तीव्र करने के लिए प्रियाप्रियतम के सुख में ही नित नये कई तत्सुख भाव संजोती रहती हैं।प्यारी प्यारी सखियां हाँ हैं तो वो श्यामा जु की ही अंशभूता जो बिन कहे श्यामा जु के भाव को जान लेती हैं और भिन्न भिन्न रंगों में घुल कर करती उनके मन की ही हैं उनका स्वयं का कोई प्रयोजन कहाँ।चाँद सितारे अगर ना हों आंचल में तो अंबर धरा के मिलन को कोई क्या रोक सकता है?लेकिन इन चाँद सितारों से ही तो सब रस रंग रूप श्रृंगार आनंद प्रेम की भव्यता है।
लो जी अब मुझमें तो हिम्मत ना है कि सखियों के समक्ष यूँ खड़ी रह सकुं।हाथ का हार और गजरे वहीं कदम्ब तले प्रिया जु के श्रृंगार स्थली पर छोड़ गायब ही हो गई फिर से।अंजानी सी हो गई मात्र एक द्रष्टा ही तो हो सकती हूँ ना।
इतने में सब सखियां राधा जु को औंधे कदम पीछे खींच लाती हैं और श्रीकृष्ण वहीं खड़े रह जाते हैं दोनों ही एक दूसरे को निहारते जाते हैं।अब कान्हा जी भी अकेले तो ना हैं।संग राधे जु की शत् शत् सुंदर अति चतुर सखियां हैं तो कान्हा के साथ भी अतुल शिरोमणि नटखट सब सखा हैं।वो भी श्यामसुंदर को प्रिया जु के पास ही ले जा बिठाते हैं और होती है सखियों सखाओं की नोक झोंक भरी तानाशाही शुरू।कोई कुछ तो कोई कुछ कह कह कर एक दूसरे को चिढ़ा रहे हैं जैसे अनेक दिव्य रूपों में श्याम श्यामा जु ही मिलन से पहले के विचित्र चित्र में अनूठे रस रंग भर रहे हैं।सब सखागण कृष्ण के मन की और सखियां राधा जु के मन की सब कही अनकही भिन्न भिन्न चर्चाएँ कर रहे हैं।और ये दोनों जैसे सबको कठपुतली सा कर खुद प्रेम पंछी एक दूजे को एक टक निहारते और मन ही मन जैसे प्रेम भरी तरंगों का आदान प्रदान कर रहे हैं।हाए।।क्या कहुं पर अब मुझे खोना नहीं।एक एक पल को इन सब संग जीना है और संजोना है।हाँ आज बस खुद ना होकर उन सबके भाव सुगंधित रस सुधा के अथाह सागर में भीगना है।
यूँ ही खोई खोई सी पगली कदम्ब से नीचे एक हवा के झोंके सी आ गिरी कि अचानक प्रियाप्रियतम का ध्यान वहाँ जाता है कि मैं पलक झपकते ही वहाँ से गायब कंपित सिहरन से भरी किसी की नज़र न पड़े सखा सखियों की डांट फटकार से डरी सी कि कहीं वो मुझे उठा निकुंज से बाहर न करदें।अभी हाल ही में इन सखियों ने एक सखी को श्यामाश्याम सुख में विघ्न बनने के कारण यहां से बाहर कर दिया है।ना जाने इन नटखट सखियों को हम बेजुबां सी सखियों पर भी तरस ना आता।अब हम क्या जानबूझ ऐसा करती हैं।ये ना समझती हैं कि प्रिया जु हम अदना से भी उतना ही स्नेह करें हैं जितना वो निकुंज के डाल डाल और पात पात से करे हैं।उनको तो जैसे हमारे मन की भाषा समझ आती ही हो वो हम से भी दुलार ही करतीं हैं।कभी अकेली होती हैं तो हम में से ही किसी भागजगे जीव को समक्ष बैठा अपने सांवरे के प्रति अनवरत बह रहे भाव सुना प्रेमरस में नहला देतीं हैं।आहा हम सब की प्यारी अति भोरी मोहन भाव भीनी श्यामाकिशोरी जु।
मैं तो अभी नई हूँ ना तो प्रिया जु ने ना देखा है शायद मुझे लेकिन मेरी वो सखी तो लाडो है श्यामा जु की हाँ निकुंज से बाहर ना भेजना चाहती थीं श्यामा जु उनको पर सखियों के आगे कोई की ना चले है।निकुंज के कोने कोने से वाकिफ मेरी वो सखी ज़रूर लौट आएगी देखना।मुझे तो इंतजार है उसी का वही तो मुझे यहाँ लाई है और वो संग होगी तो मुझे किसी का भय ना होगा।
क्रमशः

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