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निकुँज गिलहरी भाग 22

भाग-22

श्री प्रियतम ने जब श्री राधा जी को अंक में ले लिया तो उस समय के आनन्द का क्या बखान करूँ।मानो चन्द्रमा का जो प्रकाश हो वो सब चन्द्रमा में ही सिमट कर चन्द्र-प्रकाश एक ही में समा रहा हो।श्री नवल युगल के बीच में प्रेम-रस ऐसा बढ़ा है कि धीरे से लज्जा संकोच कहीं विदा हो गए हैं। दोनों के मुख पर सहज मुस्कान है और वे बातचीत रस के कुशल रचनाकार हैं।दोनों बात करते करते एक दूसरे में खोते चले जा रहे हैं और अब तक श्यामा जु भी शर्म का घुंघट हटा कर श्याम जु के आनंद रस में पुर्णत: घुल ही गईं हैं।नीलमणि नीलवर्ण श्रीकृष्ण ने श्रीराधे को अपनी चंचलता में पूरी तरह से भिगो दिया है और अब उनकी स्वीकृति से वे राधे जु की अंगकांति का एक एक रसकण अपने अधरों से पान कर रहे हैं।श्रीश्यामा जु भी सर्वसमर्पित श्रीश्याम जु के रसान्नद को बढ़ाते हुए उनसे नेह कर रही हैं।वे दोनों ऐसे एक दूसरे में डूबे हैं कि चाँदनी भी शर्मा कर खुद को रात्रि के अंधियारे में छुपा लेती है और इनके मधुर मिलन की वेला में पवन भी ऐसी शांत है कि इनके मध्य अपना स्थान ना पाकर वहाँ से प्रस्थान कर चुकी है।इनकी श्वासों का अंतर भी मिट चुका है कि ये नवल किशोर अब ना जाने इनमें कौन राधे और कौन कृष्ण हैं ।पुरूष और प्रकृति के इस अद्भुत समिलन ने तन प्राण के सभी भेद मिटा दिए हैं।ये दोनों प्रेम पिपासु इक दूजे में समाते जा रहे हैं।अब कहीं कोई भेद नहीं है।अर्ध रात्रि से मंगलाचरण के पूर्व तक युगल यूँ ही एक हुए रहते हैं और रस सिंधु सुधा बहाते रहते हैं।                                                                                     श्री युगल रस लीला में तल्लीन हैं ऐसे कि अधर पर काजल की लकीर उभर रही है और पलकों पर पान रस की पीक शोभित है। यह देख ऐसा प्रतीत होता है कि अनुराग में डूबे श्री युगल अधर और पलक का श्रृंगार बदल गया है।                                                                                केश में हारावली इस प्रकार उलझी हुई है जैसे प्रेम विवश श्री युगल का तन और मन उलझ के रह गया हो। यह दर्शन ऐसे हैं कि मानो हास्य और श्रृंगार रस मिलकर एक रस में मूर्तिमान हों।ऐसा लग रहा है मानो दो भिन्न सुंदरता की राशि श्री राधिका और श्री श्यामसुंदर एकरूप होकर अब पूरे विश्व ब्रह्मांड को समेट कर अपने सौंदर्य से भिगो रहे हों।उनके सुमधुर और सुगड़ मिलन से सम्पूर्ण विश्व सम्मोहित सा जान पड़ता है।इनके एकरूप से जड़ भी सजीव हो उठे हैं और सजीव जड़ता की विदिशा में हैं।                                                  श्री युगल की पूर्ण रात्रि मंगल रस रंग में व्यतीत हुई और भोर होते ही दोनों सुकुंवार शय्या पर उठ बैठे हैं।इस समय पर सभी निजी सखियों का दल उनके शयन कक्ष में प्रवेश कर गया है और सुन्दर सखियों के साथ उस स्थान की शोभा बढ़ कर अपार हो गयी है।                                                     सुबह के श्रृंगार दर्शन में श्री प्रियतम के मस्तक पर लाल रंग का तिलक लगा हुआ है और उन्होंने चुनरी की लाल पगड़ी धारण कर रखी है।श्री प्रियाप्रियतम बाँहों को जोड़कर वन-विहार विचरण करते हुए यहाँ-वहाँ घूम रहे हैं क्योंकि वह दोनों रस-अनुराग में भीग गये हैं ।सखियों के सम्मुख वे कुछ शर्माए से हैं और उनसे नज़र नहीं मिले रहे कि सब सखियां उन्हें देख अत्यंत प्रसन्न भी हैं और हंसी ठिठोली में उस पल की लाज को छुपाने का प्रयास भी कर रही हैं।इस मधुर वेला के मिलन को देख मैं भी उत्साहित हूँ और सदा यूँ ही निकुंज में विचरते रह कर प्रियाप्रियतम के दर्शन करती रहूं।श्यामाश्याम जु से प्रार्थना करती रहूंगी कि मुझे सदा निकुंज निवास मिले और मैं युगल का ध्यान करती रहूं।

"हे राधेकृष्णा तेरी गलियों का जो आनंद है वो दुनिया के किसी कोने में नहीं ।
जो मजा तेरी वृंदावन की रज में है मैंने पाया किसी बिछौने में नहीं।।"
।।जय जय श्री राधे।।

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