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हित रस और श्यामसुन्दर भाग 3

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 3

मेरे नैना ही यह जानै।
जेतिक भीर परत अवलोकत ठौर-ठौर छवि मांझ बिकानैं।।
रूप अगाध अकधि सखि अंग-अंग रसना, वपुरी कहा बखानै।
तन-मन बूड़ि जात देखत ही कहा हेाइ उर भीतर आनैं।।
सुधि-बुधि-बल-वितु-चतुर-चातुरी कछ न सरै कोटिक जोठानैं।
प्रान प्रिया सभंराये समझिये कहा कहाये आप सयानैं।।
हौं तौं दारू-पुतरिया प्रिया कर नचवत हितकर जैसे जानैं।
सर्वसु सुखथितु जीवन बलवितु नागरी दास हम हाथ बिरानें।।[1]

इतने तृषातुर, दीन और अधीर प्रेमी के लिये प्रेम- पात्र का पूजन करने के अतिरिक्त अन्‍य मार्ग नही रह जाता। उनकी अपनी अनंत प्रेम-तृषा और श्रीराधा के अपार प्रेम- सौन्‍दर्य ने मिलकर श्‍याम- सुन्‍दर को सर्वथा अविभूत कर लिया है और वे श्रीराधा के वास्‍तविक पूजक बन गये हें। उनका उद्दाम प्रेम प्रेम- लक्षणा भक्ति बन गया हैं। जिस प्रेम में प्रेम पात्र का पूर्ण गौरव प्रकाशित रहता है और उसकी रूप एवं गुण- गरिमा के कारण उसके प्रति पूज्‍य भाव जाग्रत हो जाता हैं, वह प्रेम- लक्षणा- भक्ति कहलाता है।

श्रीमद् भागवत् में भक्ति के नो प्रकार बतलाये हैं- श्रवण, श्रवण, कीर्तन, स्‍मरण, पाद- सेवन, अर्चन, वंदन, दास्‍य, सख्‍य और आत्‍म-निवेदन। उसका दसवां प्रकार प्रेम- लक्षणा भक्ति हैं। प्रेम के उदय के साथ नवधा- भक्ति का लय प्रेम- लक्षणा में हो जाता है और श्रवण- कीर्तनादिक प्रेम के आश्रित बन जाते हैं। प्रेम के रेग में रंग कर श्रवणादि प्रेमास्‍वाद के विभिन्न प्रकारों के रूप में सामने आते हैं और प्रेमी के द्वारा सहज रूप से निष्‍पन्न होते रहते हैं। प्रेमी अपने प्रेम पात्र के गुणों का श्रवण करता है, मन में स्‍मरण करता है और समान मना व्‍यक्तियों में बैठ कर उसकी चर्चा करता है, कीर्तन करता है। वह प्रेम पात्र का दास्‍य और सख्‍य करता ही है और उसके प्रति आत्‍म- आत्‍म- निवेदन भी करता है। पाद- सेवन, अर्चन और वंदन भी अधीर प्रेमियों में देखे जाते हैं।

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