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निकुँज गिलहरी भाग 21

भाग-21

हाए लेकिन समय की विडम्बना तो देखो।यहीं इसी समय ही फिर से नज़र वही निकुंज की मित्र गिलहरी पर पड़ती है जिसे ललिता सखी जु के कहने पर भी श्यामा जु ने बाहर ना जाने दिया था।निकुंज से निकाल दिए जाने के भय से मुर्त तुल्य वहीं छुपी तो थी पर इसे देखते ही फिर से प्रेम विहवल होकर कूद पड़ती हूँ कदम्ब से और भागती हूँ कि अब इसे खोने ना दूँगी।इसी बीच वो फिर से गायब शायद शय्या के नीचे ही है कि प्रिया जु की नज़र में आ जाती हूँ।अजीब कंपन और भययुक्त हूं कि श्यामा जु झट से मुझ पगली को पास आने का इशारा दे देतीं हैं।भाग जाना तो चाहती हूं कि कहीं मुझे भी कोई सखी दंडित ना करदे लेकिन प्रिया जु की अवज्ञा और प्रियतम की नज़र से बच कर भागने से बड़ा अपराध भला कोई हो सकता है क्या?तो बिना जुर्म किए अगर सज़ा भी मिल जाए तब भी क्या!!ना जाने पहली बार या यूँ कहुं कि शायद आखिरी बार ही ये मौका मुझ अदना को मिला हो कि प्रिया जु का स्पर्श मुझे हो।सो कठपुतली सी बनी उनकी ओर खिंच जाती हूँ जैसे चुम्बकिय आकर्षण ही हो कोई।
श्यामा जु पास आते ही अपना कोमल कर आगे बढ़ा देतीं हैं और ऊपर उठाकर अपने सौ सौ चंद्रमा समान चमक रहे मुख के पास ले आतीं हैं ।इस समय भी मैं कांप ही रही हूँ और प्रिया जु के छू देने से मेरा रोम रोम सम्पादित हो उठा है।आँखों में अश्रु और प्रियाप्रियतम के मिलन में विघ्न बनने के प्रायश्चित जैसे भीतर से झिंझोड़ ही रहा हो।पर श्यामा जु तो इतनी सरल और सजल हृदया हैं कि वो पल में मेरे हाव भाव को समझ जातीं हैं और अपने दूसरे कर से जैसे मुझे आश्वासन ही दे रहीं हों कि कोई विलम्ब नहीं।ये भी उनकी प्रेमरस लीला का ही अंश है कि मैं आज वहाँ हूँ।उनकी कृपा कटाक्ष व दया आशीष के बिना तो कुंज निकुंज का कोई लता पत्ता भी यहाँ से वहाँ नहीं होता तो मेरी क्या बिसात।
तब मुझे थोड़ा चैन आता है और मैं झुकी अश्रुपूरित पलकों को ऊपर उठा पाती हूँ कि श्यामा जु अपने हाथ पर लगे ताम्बूल रस को मेरे मुख से छुआ देतीं हैं और मेरे माथे पर मुझे चूमते हुए श्याम जु को सौंप देतीं हैं।श्यामसुंदर जु के कर में आते ही मेरी हालत और बिगड़ जाती है जिसे वे भी महसूस करते हैं और मुस्कराते हुए जल्दी से मुझे शय्या से नीचे अपने कर से उतार देते हैं जहाँ वो मित्र गिलहरी मुझे थाम लेती है और बेहोशी की सी हालत में मुझे वहाँ से ले जाती है।वहाँ मुझे वो अपने स्पर्श से शांत करती हुई प्रियाप्रियतम से कुछ ही दूरी पर बने झरोखे के पास एक पेड़ की टहनी पर ले जाती है जहाँ से वो मुझे मधुर मिलन के उन पलों को संजोने के लिए मिले इस अवसर को ना खो देने को कहती है।सत्य ही तब कुछ समय पश्चात मैं खुद को संभाल पाती हूं और मित्र को खोज लेने की खुशी में व प्रियाप्रियतम के मधुर स्पर्श से उत्साहित उन्मादित वहीं फिर से मूक द्रष्टा हो जाती हूँ।
क्रमशः

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