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निकुँज गिलहरी भाग 11

भाग-11

हे नाथ हे नाथ पुकार रही राधा
लेकिन यहां कोई नहीं जो उनकी करूण पुकार को सुने।सब सखियां भी अभी वहाँ नहीं।
श्यामसुंदर को तो देख पाती वो कहाँ हैं।अंतर्मन से वो गए ना हैं।राधे को व्याकुल छोड़ जाएंगे भी कहां।राधा जु उन्हें देख नहीं पातीं लेकिन जानतीं हैं भीतर कि वे भी कहीं अधीर व्याकुल हुए उनके लिए तड़प ही रहे होंगे।वो आलाप विलाप करतीं उन्हें अनवरत पुकारती जा रही हैं और उधर श्यामसुंदर भी उनकी व्यथा से व्यथित हो रहे हैं।वो आ तो जाएं लेकिन राधे की ये दशा उनके रसवर्धन हेतु ही एक लीला मात्र है।
और देखो इस विरह वेदना का असर श्यामसुंदर पर भी होने लगा।वो यूँ तो प्रकट हो ही जाएं लेकिन अपनी प्रेयसी की व्यथा देख वे खुद को उनका दोषी मान वहाँ से चले जाते हैं।ये दोनों ही सब जाननहार खुद को ही दोषी मान एक दूसरे की पीड़ा को महसूस कर रहे हैं और बढ़ा भी रहे हैं।सुद्ध बुद्ध गंवा दोनों ही विभिन्न दिशाओं में भटकने लगे।राधे खुद को अभिमानी मान कोस रही हैं और क्षमा याचना करती हुईं उन्हें पुकार रही हैं।श्यामसुंदर भी ऐसे ही खुद को राधे जु के प्रेम के लायक ना समझते हैं।गहन विरह रस में डूबे वो एक दूसरे को ढूँढ रहे हैं।ढूँढते ढूँढते वे सघन वन में पहुँचे जहाँ उनके विरह में पूरा वन भी जैसे तप उठा हो।पक्षी कराह रहे हैं और पेड़ पौधे भी सूखने लगे हैं।पूरी धरा और पवन वन आवरण ही विरहअग्नि से दग्ध हो रहा है।इस व्याकुलता की गंध ज्यों ही सखियों को लगती है वे भी निकल पड़ती हैं सघन निकुंज से तो देखती हैं युगल वहाँ हैं ही नहीं हैं।वे उन्हें ढूँढने लगती हैं।
और उधर राधे और श्यामसुंदर की हालत ऐसी है कि विरह में डूबे वे दोनों खुद को ही ना पहचान पा रहे हैं।ढूँढते ढूँढते वो निकुंज में से यमुना तट की ओर आते आते मिल जाते हैं।कहते हैं मैं मोहन हूँ और राधे कहती हैं मोहन तो मैं ही हूँ।दोनों ही खुद को कभी मोहन और कभी राधा कह रहे हैं।उन्हें अब होश ही ना है।और एक आश्चर्य यह भी कि दोनों ही प्रेम डोर से बंधे एक ही दिशा में आते आते मिल कर वहीं ठहर जाते हैं।एक दूसरे से वहीं बैठ कर हृदय की वेदना भी सुनाने लगते हैं।उनकी ये दशा देख सब रंग बेरंग हुए। सब सखियां भी वहाँ आती हैं लेकिन प्रियाप्रियतम वियोग में उनकी हालत भी ऐसी ही व्यथित है कि कोई किसी को पहचान पाने में अस्मर्थ ही है।
लेकिन कब तक आखिर कब तक ये सब।
नहीं।।काश मैं कुछ कर पाती।।पर कैसे।।
नहीं रहा जाता यूँ।डरती भी हूँ कि कोई रूष्ट ना हो जाए।लेकिन कुछ तो करना ही है।
दृढ़ संकल्प कर मैं हिम्मत जुटा कर उन सबके मध्य जाती हूँ कि मेरी नज़र कान्हा की बांसुरी पर है और जानती हूँ कि अब एक यही यंत्र है जिससे सब ठीक होगा।सखी नहीं हूँ ना कि बजा पाती पर उसे पीताम्बर में से निकाल उनके समक्ष हो रख पाती तो शायद कोई उसे फूंकदे।ये सोच मैंने ऐसा ही किया लेकिन सब इतने बेसुध हैं कि मुझे किसी ने ना देखा और मैं वंशी को वहीं श्यामा जु की गोद में रख आई हूँ।
आहा।।मुझ पर तो ना सही वंशी पर तो प्रिया जु की नज़र पड़ ही जाती है और वो उसे अश्रुपुरित नयनों से उठा पूरे मन से बजाकर पुकार उठतीं हैं श्यामसुंदर जु को।बस अब क्या।ऐसा मधुर शादी छिड़ा कि सारा निकुंज फिर से पहले जैसा ही रंग भरा हो गया।सब और वही चहल पहल और सब सखियां और कान्हा जी भी श्यामा जु को वंशी बजाते देख मंत्रमुग्ध हुए निहारते ही रह गए।
क्रमशः

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