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बाहर बरसात सावन की , संगिनी

बाहर बरसात सावन की
भीतर है आग विरह की
बरस कर भड़का रहा कोई
प्यास मिलन की
नहीं है दूर पर
कोई नहीं पास भी
राधे बैठीं हैं तन्हा
है उनको कान्हा का
इंतजार भी
ना जाने कहाँ खोई सी
किस अतीत की यादों में
अनवरत रोई सी
मोहन हैं पास पर
पहचान रहीं नहीं
रो रो कर है बात कर रहीं
उस रोज़ श्याम रूठे थे
सावन आया
पर वो ना आए अभी
प्यासे दृग अभी छलके नहीं
और रूंधे कंठ ने
ठीक से पुकारा नहीं
सावन है बरस रहा या
बरस रही राधे की रूस्वाई ही

क्षमा करो प्रिय
मान भी जाओ
आ जाओ पास मेरे
यूँ ना तड़पाओ
माना हूं लायक नहीं
बहुत दिल दुखाती हूँ
किसी काम की नहीं
फिर भी पाकर तुम्हें
इतराती हूं
सखियन संग बतिया कर
खुद को नालायक ही पाती हूँ
है नहीं खास मुझमें कुछ
फिर भी मेरे मोहन
कह कह करके
खुद अभिमान बढ़ाती हूँ
तुम खुश रहो जैसे प्रिय
वैसी भी ना हो पाऊं
तुम्हारी चाहत के
काबिल नहीं
फिर भी ना दूर रह पाऊं
महोब्बत क्या है
ये जानूं ना
तुम करते हो बेहद
ये भी ना सोच पाऊं

श्याम चुप खड़े सब सुन रहे
ना जाने कैसे सब जर रहे
पलकों में अपनी अश्रुजल व
राधे के दर्द को ही भर रहे
थाम लेते कभी वो
कभी शांत होने को कह रहे
पर ना जाने श्यामा
किस भाव दशा में
गहरी पीड़ा से श्याम गुज़र रहे
देख श्यामा की असहनीय दशा
खुद ना रोक पा रहे
कह रहे बार बार यही
प्रिया जु हम हैं
आपके पास खड़े

श्यामा जु हैं आज
अलग ही आवेश में
ना कर रहीं शिकवे
श्याम से
कोस कर खुद को ही
परेशान करे
बीती बातों और रातों की
वो कुछ अनकही यादों को
अनबुझे दियों से जला रहीं
श्याम दूर खड़े सब निहार रहे
जब रोक ना पाए खुद को
तो बाहों में भर श्यामा को वो लिए
बोल ना सकें अब वो कुछ
यूँ उनके अधर अधरों से सिल दिए
हृदय की बात हृदय से हो
यूँ वो प्रिया जु से लिपट कर खड़े
आगलगी तरंगें उठ रहीं
श्यामा जु के जो भावों से
वो अब हृदय से लगीं
कि प्रिय श्याम जु तो
काँप ही गए और पीर
श्यामा जु की उन्हें चुभी

प्रिया जु के भावों को
बहने को सुराग मिला
बहते बहते वो प्रिय से इकसार हुईं
दोनों के उद्गार बहे और
शुभ मिलन की शाम ढली
एक हुए युगल अब
भाव भी युगल के
प्रेम सुधा ऐसी बही
घड़ घड़ गरज उठे बादल और
गहन प्रेम की बरसात हुई
रंज-ओ-उल्फत बह गए सब
धरा प्रेमरस से भीग कर
सुगंधित गुल-ए-गुलज़ार हुई

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