Skip to main content

निकुँज गिलहरी भाग 20

भाग-20

शायद यही तो प्रेम है।ना चाहते हुए भी कदम अंजान राहों पर बढ़ चलते हैं।महोब्बत सच्ची हो तो पथप्रक्षालित करने स्वयं प्रेमदेव कृष्ण और प्रेममयी राधे ही सारथि बन मार्ग में खड़े रहते हैं।उन्हीं के हाथ प्रेमडोर देकर उन्हीं से प्रेम करना और प्रेम समर्पण कर देना ही प्रेम की परिसीमा है जिसका कभी कोई थाह नहीं ना कोई पा सकता है ना ही पाना है।मिलन और विरह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।प्रेम करना विरह को आमंत्रित करना ही है।खैर क्या करूँ निकुंज गिलहरी हूँ ना तो निकुंज भावभावित होना स्वाभाविक है।राधेकृष्ण के प्रेम से महकती पुरवाई में श्वास जो लेती हूँ जिसका असर तो तृणमूल और कण कण पर भी प्रत्यक्ष रूप से हो ही जाता है।निकुंज की रज जिस पर राधेकृष्ण नंगे पांव विहरते हैं वो भी प्रेम में मदमस्त झूमती गाती प्रियाप्रियतम मिलन गीतों को गुनगुनाती रहती है।यमुना जी के जल में भी प्रेम तरंगें उठती बैठतीं चाँद सितारों को भी शीतलता प्रदान करतीं हैं।हर डाल पात व लता भी प्रेमपुरवाई की मधुर छुअन से एक दूसरे को आलिंगन चुम्बन देते रहते हैं।और तो और इस निकुंज के शुक सारिका मयूर सभी पक्षीगण भी प्रेम बेलों पर मधुर प्रेम कलरव करते रहते हैं।तो भला इस रस के छींटों से अदना सी गिलहरी कैसे अछूती रह सकती है!!!!
निकुंज द्वार पर खड़ी मेरी नज़र श्यामाश्याम जु के रस सौंदर्य पर पड़ती है।वे दोनों सेज शय्या पर विराजे हैं और सखियां रात्रि मिलन में उपयोगी सोंधी महक से भरपूर शहद चंदन ताम्बूल फल इत्यादि के चाँदी के रत्नजड़ित पात्र लाकर शय्या के पास रखती हैं और वहाँ से मंगल गीत गातीं चली जा रही हैं।इस समय उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है।
वहीं दूसरी और प्रिया जु अत्यधिक शर्माई सकुचाई सी अपने अंगों को छुपाती हुईं श्यामसुंदर जी से ज़रा हट कर दूसरी और मुख करके बैठी हैं।श्रृंगार विलास की कलाओं में दोनों श्री युगल प्रियाप्रियतम समतुल्य हैं। मिलन के रस को लेकर जो इस समय उनके हृदय में जो वेग है वह वर्णन नहीं किया जा सकता है।इन नव वर-वधू के विहार की लीला रस-रँग से भरी हुई है और यहाँ पर राधा जी परम कृपालु व उदार है। वह प्रियतम के हृदय की सिचाई परम कृपामय प्रेम से करतीं हैं  क्योंकि वह रसिक लाल की रस लालसा देख कर ही समझ जाती हैं।राधा जी के घूँघट के ज़रा सा खुलते ही लगा मानो चन्द्रमा प्रकाशित हो रहा हो। उस समय श्री नवल किशोर की नेत्र-गति किसी चकोर की भाँति हो गई और वह प्रेम के फन्दे में फंस कर रह गए।
इस समय जब वहाँ कोई भी सखीगण मौजूद नहीं तो लगा मुझे भी वहाँ से प्रस्थान कर जाना चाहिए लेकिन एक गिलहरी को क्या।वह तो स्वतंत्र जीव है।भलीभाँति कहीं भी आ जा सकती है ना।बस प्रियाप्रियतम की मिलन घड़ियों में बाधा ना हो और प्रिया जु को किसी तरह का कोई अवलंबन ना हो ये सोच चुपचाप एक मूक द्रष्टा की तरह वहीं कदम्ब की टहनी पर छुपी बैठी हूँ।
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...