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निकुँज गिलहरी भाग 19

भाग-19

हंसी सुन प्रिया जु स्तर्क हो जातीं हैं और नज़र झुका लेतीं हैं।श्यामसुंदर भी सखियों की तरफ देख कर मन ही मन सकुचा जाते हैं कि ललिता सखी जु उस नादान सखी को डांट लगातीं हैं और फिर बात बदलते हुए सब से प्रियाप्रियतम के शयन कक्ष को सजाने के लिए कहतीं हैं।सखियां अब ताम्बूल पत्र लातीं हैं और श्यामसुंदर जु को देकर ताम्बूल लगाने के लिए कहतीं हैं।प्रिया जु अपने हाथों से बनाए हुए ताम्बूल को उन ताम्बूल में मिला देतीं हैं।
दूसरी तरफ पुष्पों से सेज सजाती सखियां मंगल गीत गा रही हैं।भिन्न भिन्न तरह के कोमल महकते पुष्पों की सेज बनाती वो मधुर मंगल मिलन के गीत गा रहीं हैं।ललिता विशाखा चित्रा व अन्य सखियां फल फूल कंद मकरंद के थाल सजा लाईं है।साथ ही में श्याम जु के लिए तैयार की गई दूध खीर भात और रबड़ी लाईं हैं जिसकी महक पूरे निकुंज को महका रही है।इसके साथ ही ताम्बूल की महक घुल रही है कि अब तो इस महक से भूख लग आई है।लेकिन उस भूख की व्याकुलता अपनी मित्र गिलहरी को ढूँढने से तीव्र नहीं है।अभी भी नज़रें सखी को तलाश रहीं हैं कि एक बार अन्जान सी राहों में फिर एक बार कदम बढ़ा देती हूँ।ये सोच कि अभी प्रियाप्रियतम यहीं बैठे हैं चल देती हूँ खोजने अपने प्रिय मित्र गिलहरी को।सब सखियों की नज़र से बचती बचाती गहन वृक्षों से होते हुए वहाँ जहाँ प्रियाप्रियतम सेज सज रही है।
ना जाने क्यों कहीं सघन निकुंज में मित्र गिलहरी के होने का मन में अंदेशा सा हो रहा है जैसे कोई अपनी और खींच रहा हो मुझे।कोई पुकार और प्यास भीतर जगी है जो बिन सोचे समझे ही कदम खुद ही उस और बढ़ते चले जा रहे हैं।रोक नहीं पाती हूँ लेकिन कहीं दूर दूर तक कोई नज़र भी तो नहीं आ रहा ना।भूख प्यास से अब मन विकल है पर अब तन्हा करूँ भी तो करूँ क्या।प्रिया जु और प्रियतम से दूरी भी सहन नहीं होती कि वहीं कुछ देर के लिए मुर्छित सी स्थिति में कदम रूक जाते हैं।पास ही कुछ धुंधला सा देख पाती हूँ कि गोपेश्वर महादेव जी की अति सुंदर सखी रूप में सजी हुई प्रतिमा है।उन्हें देख उनकी और बढ़ चली और विकल मन से प्रार्थना करती हूँ कि वे मुझे लक्ष्य तक पहुँचने में सहाई हों।इतने में अर्धरात्रि पूजन के लिए कुछ सखियां वहाँ आती हैं और पूजन अर्चना के बाद वही भोग प्रसाद के ताम्बुल व कंद मूल इत्यादि वहाँ छोड़ लौट जाती हैं।उनके जाते ही निकुंज की कई गिलहरियां शिवलिंग पर चढ़ाये प्रसाद को ग्रहण करने लगती हैं।उनमें से कोई भी एक मेरी मित्र नहीं है पर फिर भी वो सब मुझे भी भोजन के लिए आमंत्रित करती हैं।सब बहुत प्रसन्न हैं पर मैं क्यों अभी भी व्याकुल ही हूं और भोजन छोड़ कर फिर उसी तलाश में जुट जाती हूँ।
अस्मर्थ असहाय सी लेकिन उन्मादित भी निराश नहीं।दूर से ही सखियों के हंसी ठिठोली करने की मधुर ध्वनि सुनाई देने लगती है।रूकते रूकते कदम मुड़ जाते हैं उनकी और।लेकिन क्या वो गिलहरी मुझे भी तलाशती होगी अगर हाँ तो अब तक मिल चुके होते यदि नहीं तो मुझे तलाश क्यों?
क्रमशः

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