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अधुरे चित्र ... पिपासा , trishit तृषित

अधुरे चित्र ... पिपासा , तृषित

यह पत्र सबके निमित्त नहीं है ... क्योंकि अपात्रता की सिद्धि इसमें है , और आप पात्र है , अपात्र नहीं ।

प्यास , व्याकुलता , तडप , वेदना , लोलुप्ता , पिपासा कुछ भी नाम दे दीजिये यह समसामयिक नहीं होती । इट्स मिन्स never contemporary ... ...
शाश्वत होनी चाहिये ।

जीवन तो रहस्यों का सागर है , नित नव परत खुलती रहती ही है । यह रहस्य की परत खुलना जीवन की नवीनता है , जिससे आकर्षण बना रहे ।

पथिक को प्यास सच्ची होनी चाहिये । बहुत गहरी । और इस प्यास में कोई तर्क शास्त्र नहीं सिद्ध होता । प्यासा क्या ज्ञान दे और क्या लें । उसे तो तृप्ति चाहिये ।
जीवन की धारा में पिपासा का गहन अस्तित्व है । पिपासा कामना नहीं है । क्योंकि कामना जीवन शक्ति नहीं जानती बल्कि जीवन ऊर्जा को बिखेरती ही है । पिपासा का सम्बंध जीवन ऊर्जा के संगठन से है । है दोनों इच्छा शक्ति के स्वरूप परन्तु एक भोग है और एक प्रेम । प्यासे को सच्ची प्यास नहीं तो कुछ भी पिला दीजिये वह राजी हो जाएगा । यह प्यास कामना है , अगर प्यासे के सामने सब द्रव्य हो और उसे वही पीना हो जिसकी प्यास है तो प्यास वहाँ धर्म है क्योंकि वह समग्र सहभागी है ।
प्यास भी स्वार्थ की वस्तु नहीँ है । और अगर स्वार्थ सिद्धि ही प्यास अनुभूत हो तब वह अपना पूर्ण स्वरूप प्रकट नहीं कर पाती ।
किसी चित्रकार का जीवन है चित्र , क्योंकि चित्र में जब डूबता है तो सच मे जीवंत होता है । चित्र और चित्रकार मिलकर पूर्ण है । बिना चित्र चित्रकार का कोई परिचय नहीं । बिना चित्रकार , चित्र स्वयं को भी अनुभूत नहीँ कर पाता । चित्र जब ही जी सकता है जब उसे कोई चित्रकार मिलें ।
किसी पागल चित्रकार की चित्रशाला जला दी गई हो । और सँग के चित्रप्रेमी , रंगों में डूबने को लोलुप्त यह कहे कि "कोई बात नहीं आप चित्र को भूल जाइए । तो यह हत्या हुई , बड़ी कोमलता से पिपासा की हत्या । चित्रकार की तब स्थिति कोई तब ही समझे जब चित्र और चित्रकार के सम्बंध को वह अनुभूत किया हो ।
अब कल तक के यह विद्यार्थी जो प्रति चित्र गाथा गाने लगते थे , कहे कि चित्र नगरी ही छोड़ दीजिये । तब इनका रँग , कला , चित्र से क्या सम्बन्ध हुआ ???
ईश्वर नहीं चाहते तुम चित्रकार रहो , यह कलाप्रेमियों के शब्द स्पष्ट करेंगे कि वस्तुतः वह ईश्वर को ही नही समझे है । न कला की महिमा को । न ही चित्रकार के चित्र निर्माण में प्राप्त रसास्वादन को । रसास्वादन अर्थात समग्र जीवन । जब कोई चित्रकार केवल चित्र में जी रहा हो तब सम्पूर्ण विश्व से उनकी वहाँ प्रकट होती है । न दृश्य तब दृश्य ही होता है , न दृष्टा केवल दृष्टा । दृश्य और दृष्टा का परस्पर खो जाना ही जीवन ऊर्जा है । जो कि संगम पर प्रकट होती है । इस स्थिति को व्यापक रूप से एक शब्द देना हो तो वह है ... प्रेम ।
चित्र भी प्यासा है उतना जितना चित्रकार । परस्पर मिल कर परस्पर उतर जाना यहीं प्रेम है। 
अब चित्रकार को यह कहना कि चित्र के किन्ही के जलाने पर चित्र शब्द ही भूल जावें । तब जो पीड़ा चित्रकार के हृदय में उठी है वह पीड़ा दिखती अप्रेमी को चित्रकार की है । परन्तु वो पीड़ा उन सब अधूरे चित्रों की है जो क्रमशः आगन्तुक प्रतीक्षा कतार में थे । यह भाव रूपी भ्रूण हत्या हुई जो जीवंत न हुए उन्हें नष्ट कर देना । वह जीवंत होते क्योंकि पहले के चित्र यही कहते है ।
अब कहा जावे तुम चित्रकार थे ही नहीं तो यह बात चित्रकार के हृदयस्थ चित्र को पीड़ा देगा । कहां जावे फिर वो चित्र जहाँ जाएगा यही कह कर उसका दमन हो ही जायेगा ।
अब चित्रकार सत्य में चित्रकार है इसका प्रमाण होगा उसका चित्र से संवाद । और इस संवाद में हर गर्भ धारण की हुई माँ जानती है , शिशु का अस्तित्व उसके अस्तित्व से अधिक महत्व रखता है । माँ और शिशु में किसी एक को ही शेष रखा जावें तो माँ शिशु को ही रखेगी । चूँकि शिशु गर्भस्थ है तो उस पर सवाल होंगे ही नहीं और जीवन की प्यास उस चित्र रूपी शिशु की चित्रकार को अनुभूत हो रही होगी । मेरे चित्र ... मेरे भाव ... मृत हो जावें कौन कहेगा ???
अब चित्रकार को कहा जावें कि संसार मे कुछ और कर लो , चित्र भीतर ही बनाओ । तो सत्य में यह असम्भव है । सम्भव होता तो बाहर मन्दिर का आस्तित्व ही ना होता । सब मन के अदंर देख लेते स्वरूप । परन्तु मन द्रव्य है । तरल है । तैरता रहता है , वह स्थिर चित्र बना ले यह स्थिति स्थित प्रज्ञ है । यहाँ बाह्य जीवन क्रियाशुन्य है । क्योंकि स्थित प्रज्ञ स्थिति की क्रिया में स्थित प्रज्ञता प्रकट न हो । तो अर्थात अभी मन तरल था , द्वेत था । श्रीराधा सब जानते न आप यह नाम । यह भीतर बाहर एक सी स्थिति है । अपरा प्रेम । अभिनय है ही नहीं न भीतर , न बाहर । मन का अर्थ वहाँ प्रियतम है और प्रियतम का नित्य नव दर्शन प्राप्त है उन्हें । यह नव दर्शन ही उनका उन्माद है उस चित्रकार सा ।
अब यहां संसार तर्क खड़ा करता है , इच्छा न करो , भगवान की मर्जी आदि । चित्रकार के चित्र जल जाये और वह चित्रकार ही ना रहें । यह कौनसे भगवान की मर्जी होगी । इस चित्र की अनुभूति के समय ही चित्रकार को रस रहता है । आगे फिर नया चित्र उमड़ने लगता है । परन्तु यह चित्र जगत को सदा रस पिला सकता है , क्योंकि जीवन है यह प्रकट । जो स्थिर हो गया । वस्तुतः चित्रकार से चित्र बिन मिलना पूर्ण मिलन है ही नहीं और चित्र से मिल लेना ही उसकी समग्र भावना का दर्शन है ।
जितने भी मन्दिरो में श्रीविग्रह है वह सब प्रार्थना सुन रहे है न । क्या वही प्रार्थना उस मूर्तिकार से की जा सकती है ।
ईश्वर सत्य में तब प्रकट होता है ,सारा संसार उस अनुभूति के आगे हाथ जोड़े खड़ा भी रहता है । फिर कहता भी है , मन मे मानो , जानो , पहचानो , तराशों ।
जगत विलोम गति पर है जिस चित्रकार ने माना ,जाना , पहचाना , तराशा , जिया उसे कह देता है जगत ... मन मे । ठीक है मन ही माना जाये उत्तम है तो बाहर और भीतर दो भिन्न ईश्वर कैसे हो ? दो भिन्न जीवन कैसे हो ? यह विज्ञान चित्रकार को चित्रकार रहते कभी समझ आना नहीं है । इसके लिये वह सम्पूर्ण भस्म हो और नई सन्देह की ऊर्जा को लेकर निकल पड़े सन्देह के शास्त्र में । फिर कहे यह मोती मैने बनाया तब समुद्र से अपरिचित माने हाँ इसने ही बनाये है । छिपा ले वास्तविक उदबोधक को । चित्र बने पर चित्र ने जो बनाया वही दुनियां रखता जावें , जगत को रिझावे । छल करें भीतर के उस चित्र से । यह गुर चित्रकार कभी चित्रकार रहते नही समझ सकता ।

सवाल यहां यह है , सँग के कलाप्रेमी को चित्रशाला भस्म होने पर क्या करना है ??
सत्य में रँगों से , चित्र से कभी प्रेम हुआ था तो चित्रकार से अधिक तड़प नए चित्र को निरखने की उन्हें ही होगी । और वह रहेगी । यह नहीं कि अब यह चित्रशाला जल गई तो यहाँ फेक्ट्री खोल कर वे सब राजी हो जावे । तब चित्रकार स्वयं भी न सुने अपने अधूरे चित्रों की पुकार तो कलाप्रेमियों को सुनाई देगी । यह उन अधूरे चित्रों से प्रार्थना करेगे । यहीं प्रार्थना प्यास है । चित्र विवश है प्रार्थना से , वह प्रकट होगा ही । बस प्यास को प्यास रखने की बात है । ना कि कल की नदी को नाला मान लेने की कहानी से लौट जाना उचित है , वह नदी क्यों छुप गई । कहां खो गई , यह तड़प ही दृश्य को प्रकट करती है ।
प्रेम बड़ा एकांतिक है , उसका मूल है पिपासा क्योंकि यह चुम्बकीय ऊर्जा है ।
कोई चित्रकार को यह भी कह सकता है , शायद चित्र ही रुष्ट हो , शायद चित्र अब हो ही नहीँ , शायद उन चित्रों ने अपनी इच्छा बदल ली हो ।
बाहर अनेक बात हो सकती है । पर चित्रकार सुन रहा है अपने चित्रों की । चित्र मन शुन्य है , उतने व्याकुल जीवन को जैसे गर्भस्थ शिशु । मातृशक्ति से शिशु विद्रोह भी कभी करें तो इस इच्छा की पूर्ति के लिये भी चित्र को जन्म लेना ही होगा ।
यह सारा खेल चित्रकार को सच्चे कला पारखी समझाने भर को है । वे चित्रकार के स्वप्न में भी प्रवेश कर उसके चित्रों को निरखने को सदा तड़प रहे होंगे । परन्तु जगत की पिपासा बड़ी उथली उथली है । बदल जाती है , गहन स्थितियों से भी लौट पड़ती है । पिपासा लौट नहीं सकती यहीं उसका स्वरूप है । चित्र विज्ञान चित्रकार स्वयं है , अब चित्र की बातों से अधूरे चित्रों को पीड़ा ही होती हो शायद कोई सुन सकें तो । सारी पीड़ा समग्रता के जीवन हेतु ही होती है । तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम ।
इस सँग दिए चित्र पर बिन लिखें बहुत कुछ लिखा है । जिसे जो पढ़ना हो पढ़ लीजिये । किसी भी आरोपों की स्वीकृति में  पूर्व में ही नाम है , अकथनिय भावनाओ के कथ्य रूप । तृषित ।

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