Skip to main content

कृष्ण प्रेम , मृदुला जु

कृष्ण प्रेम

प्रेम है ही मात्र उनका ॥ हमसे तो परावर्तित ही हो रहा केवल ॥ यथार्थ स्थिती तो है ही यह कि सर्वत्र बरसता उनका अपार नेह कहीं किसी दर्पण को पाकर परावर्तित होने लगता है ॥ दर्पण सदैव प्रतिबिंब ही सृजित करता है बिम्ब उसकी सृष्टि नहीं है ॥ परंतु हमारा हृदय दर्पण उसमें प्रतिबिंबित होते प्रेम को स्व मान लेता है ॥ हम मान लेते हैं कि आहा प्रेम प्राप्त हो गया हमें ॥ नहीं प्रेम केवल कृष्ण तत्व है ॥ जो नेक सा निहारना भी उनकी प्यारी छवि को बन पा रहा है वह भी उनका मेरे प्रति प्रेम है ॥ उनका नाम भी जिह्वा पर तब सुशोभित हो पाता है जब उनके प्रेम को ये शून्य हृदय ग्रहण कर पाता है ॥ बिंदु कभी संपूर्ण सिंधु को धारण कर ही नहीं सकता । वह तो भीतर केवल उतना समा पाता जितनी धारण सामर्थ उसमें ॥ उनके लिये विरहाश्रु उन्हीं के द्वारा नित्य खींचे जाने का स्पष्ट प्रमाण हैं ॥ समस्या यह है कि बिम्ब दृष्टिगोचर नहीं हो रहा तो बिम्ब की सत्ता ही नकार दी जाती है ॥और प्रतिबिंब को ही मूल रूप प्रेम मान ले रहे हम ॥ श्रीकृष्ण का स्वभाव कैसा है वह हमारी मति जो माया के राज्य की अनुगामिनी है प्रवेश कर ही नहीं सकता ॥ वास्तव में तो इस मायिक सृष्टि में जिस किसी भी हृदय में उनके प्रति प्रेम का कोई भी कण अपनी आभा बिखेर रहा है वह उनके दिव्य प्रेम राज्य की प्रेम सत्ता का सीकर मात्र ही है ॥ संसार में वैसा प्रेम संभव ही नहीं ॥क्योंकि संसार में किसी के पास उस दिव्य प्रेम को परावर्तित कर पाने योग्य दर्पण है ही नहीं ॥ तो केवल अणु मात्र ही दृष्टिगोचर हो पा रहा यहाँ ॥ परंतु दिव्य रस राज्य में समस्त चराचर उनकी  हृदय प्रीती का परावर्तन करते रहते हैं ॥ वे अपने ही हृदय रस के नित्य आधीन रहते हैं ॥ इस जगत में भी जिस हृदय से नेक सी भी उनकी स्व वस्तु अर्थात् प्रीति प्रतिबिंबित होने लगती है वे कह उठते हैं "अहं भक्त पराधीनो " ॥

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात