Skip to main content

अनन्त सखियाँ ... अनन्त सेवा , तृषित

अनन्त सखियाँ ... अनन्त सेवा

अनन्त सखियाँ है ... अनन्त कुँज है । अनन्त सेवा ।
भावगत पृथकता से कभी सम्पूर्ण अभिन्न स्थिति परस्पर एक ही पथ पर , एक ही समय चल रहे पथिक में होती नहीं ।
एक ही कक्षा में सामूहिक अध्ययन पर भी सभी के पथ भिन्न हो जाते है ... नित नई पृथकता यहाँ ।
सखी युगल सुखार्थ प्रकट भाव सिद्ध हेतु स्थिति है । युगल सुख हेतु स्थित । स्थित होना ही असहज है । यहाँ मनगत-भावगत पृथकता होती नहीं युगल प्राणमूर्ति से । सखी में युगल से पूर्व युगल सुख प्रकट होता है ... वह इच्छा-शक्ति है युगल की ।
ऐसा होता नहीं कि सभी सखियाँ मनोकल्पित सेवा की इच्छा करती और प्यारी जु उन सब सेवाओ की सिद्धि करती हो ... ऐसा यहाँ प्राकृत लोक में हो ही रहा है । यह सेवा मूल में प्यारी जु की हुई ... ... मान लीजिये एक सखी को प्यारी जु के चरणों मे जावक रचना करनी हो , अन्य सखी को भी करनी हो । सेवार्थ प्यारी जु के पास दो चरण है अतः इच्छा सिद्ध हो सकती है ... परन्तु यह सेवा मूल में की गई प्यारी जु द्वारा है । युगल सुख और तत्भाव-तत्काल सेवा ही सेवा होती है । द्वारपाल यदि शयन कक्ष में सेवा चाहें तो वह सेवक हुआ कहाँ ? आवश्यकता तो द्वार पर है और द्वार पर उपस्थिति भी स्वामी का सुख है । निभृत सेवा तो प्रियाप्रियतम के सुख से अभिन्नतम भावित सखियों को ही प्राप्त है । अनन्त सखियाँ है ... हम अपने भाव का चुनाव नहीँ करते ... ऐसा किया गया अभी साधन अवस्था ही है ... साध्य से अभिन्न स्थिति ही सिद्ध अवस्था है ।
युगल की युगल इच्छा जाने बिन सेवा तो प्राकृत लोक है , और मूल में वहाँ सेवक युगल ही है । ... जहाँ युगल , भावुक की भाव सिद्धि हेतु धातु आदि स्वरूप में सेवा स्वीकार कर रहें दिव्यतम कोमलांग होकर भी । अप्राकृत स्थिति भिन्न है , भिन्नता है अभिन्न इच्छा ... युगल सुखार्थ जो भावुक जितनी त्यागमयी सेवा से भावित हो वह उतनी ही निकट सेवा स्थिति में अवसर पा लेता है । जो यह स्वीकार करें कि श्रीजी स्वयं कहे तो भी हमें उनके स्पर्श सेवा का अधिकार नहीँ ...वही श्रृंगार सेवा प्रकट होती है और वहाँ स्पर्शानुभूति होती ही नहीं क्योंकि स्पर्शानुभूति का लोभ है तो वह साधक अवस्था है , रसभावसिद्ध अवस्था नहीं । अभिन्न सुख हुये बिना सखित्व प्रकट नहीं होता । सखी युगल का संयुक्त हृदय है ...  पृथकता नहीँ !  युगल की रसजड़ता में अनन्त भाव सेवाएं प्रकट होती है प्यारी जु के प्रति स्पंदन को तरल करना होता है । ... अति मधुता गति शुन्य स्थिति है ... शहद तीव्रता से बह नहीं सकता , अतिघनीभूत स्थिति वह । सखी , युगल के बाह्य आंतरिक रसमयी जड़ता को भाव सिद्धि इच्छाशक्ति से तरल करती है और परिणाम में वह क्रियामय हो पाते है , वरन ब्रह्म जीवन तुल्य पलक स्थिरता है वहाँ ... उनकी स्थिरता भी बनी रहे और लीला सुख भी हो उन्हें । ... सुख लेने के लोभी सभी भिन्न लोकों में छूट जाते है , इसमें हमारे प्रियालाल निर्दोष है ... यह दोष हम जीवों का है ... सकामता छुटाए नही छुटती ।
स्थिरता मधुता की आवश्यकता है और लीला रस की । शहद जितना पतला होगा मधुता कम होगी । ऐसे ही युगल हृदय घनीभूत रसभाव मधुतम है । प्राकृत शहद यहाँ समझने मात्र लिखा है , वरन श्रीलक्ष्मी अधर मधुता भी श्री पद रज की मधुता को छू नहीं पाती है । श्रीकिशोरी जु का यह मधुर राज्य ऐश्वर्यता को ऐश्वर्य प्रदान करता है ... प्रति सखी कही त्रिपुरसुंदरी स्थिति से प्रवेश कर भीतर आती है , श्री लक्ष्मी का सात्विकतम रूप त्रिपुरा है ... और सखी श्रीलक्ष्मी की सम्पूर्ण ऐश्वर्य शुन्य निर्गुण अवस्था ... हम श्रीमान-श्रीमती होने में लगें जगत में । सम्पुर्ण श्री (श्रयता) धारण किये श्रीनारायण और उनकी अभिन्न शक्ति-श्रीलक्ष्मी अभिन्न होकर भी युगल सुख के अनुभवार्थ मधुर राज्य के सम्पूर्ण पिपासित स्वरूप है । ... अति ऐश्वर्यता , अतिमाधुर्य पिपासा । और माधुर्य सर्व विस्मृति चाहता है ... जगत में भी जीव एश्वर्य स्थितियों के विस्मरण से माधुर्य को क्षणार्द्ध अनुभूत कर सकता है । माँ महँगी साड़ी पर शिशु के मल त्यागने पर , साड़ी की चिंता में नही , शिशु के सुख में बाधा से भावुक होती है । माधुर्य की एक मांग है ऐश्वर्य की सम्पूर्ण विस्मृति और युगल माधुर्य यह श्री नित्य विहार सम्पूर्ण ऐश्वर्यता की मधुता है । ... तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।

प्रश्न था -- Yadi ek hi samay me radha joo ki ek hi prakar ki seva krne ki ichha do sakhiyoin ke hriday me aaye to radha joo kisko pukarengi...radha joo to sabhi sakhioin ke hriday me aaye bhavoin se parichit hoti hain....or unhe anand dene ke liye unke sukh ke liye unki har iccha purn krti hain....fir radha joo kese dono ki ek hi iccha ek hi samay me puri karengi

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात