श्री युगल के हृदय की मन की परस्पर के सुखार्थ की अनन्त वृत्तियाँ ही सखियाँ है ॥जैसे सागर की लहरें सागर से अभिन्न ।वे रस आधिक्य में रस जडता में रहते हैं तब यही वृत्तियाँ लीला संपादक रस संचरण हित क्रियाशील रहतीं हैं ॥ वास्तव में सखि तो परमोच्च परम गहनतम् परम प्रेम अनन्त स्थितियाँ कहिये , तरंगें या लहरें कुछ भी कह सकते वे हैं युगल हृदय की ॥ प्रथम सोपान पर पग बिना धरे परम उच्च सोपान पर कैसे पहुँचा जा सकेगा ॥श्री युगल से अभिन्नत्व के ही अनेकों स्तर हैं निकुंज सेवारत समस्त परिकर ॥ जैसे श्यामसुन्दर के हृदय की एक भावना है कि मैं श्री प्रिया को चंवर डुलाऊँ तो यह भावना किंकरी रूप साकार हो नित्य श्री प्यारी को चंवर डुलावे है ॥ उसके अतरिक्त वह कछु और न जाने है ना चाहवे है ॥क्योंकि उसका स्वरूप ही चंवर डुलाना है ॥ प्रियतम के हृदय में उसका यही स्वरूप था या कहिये कि वह वृत्ति ऐसे ही प्रकट हुयी तो वह नित्य वही रहेगी ॥अब जब संसार में किसी प्रेम भावित हृदय में वही सेवा भावना गाढ़ होवेगी तो वह चेतना उसी किंकरी से एकत्व प्राप्त कर लेगी सिद्ध अवस्था में । यह बाह्य सेवा की वृत्ति हुयी ऐसे ही आंतरिक सेवा लालसा भी होती है ॥मान लीजिए कि श्री श्यामसुन्दर के हृदय की एक लालसा है कि मैं श्री प्यारी जू के अधरों का रसपान करूँ तो उनकी यह प्रेममयी वृत्ति भी साकार रहेगी बाहर और भीतर ॥ जब युगल केलि रस में रसजडता को प्राप्त होने लगेगें तब उस समय यही प्रेम वृत्ति प्रियतम हृदय में इस भावना रूप प्रकट होकर उन्हें रसजडता से उबार रस पृवृत्त कर देगी ॥और यही सेवा भी होगी इस भावना रूपी सखी की ॥इसी प्रकार समस्त निकुंज परिकर श्री युगल की परस्पर प्रेममयी सेवा की अनन्त लालसायें हैं ॥ संसार में रहकर बाह्य सेवा की लालसा ही हृदय में पायी जा सकती है ॥आंतरिक युगल हृदय लालसा निकुंज प्रवेश उपरांत भाव तथा गाढता के अभिन्न होने पर तत्स्वरूप सखि चेतना से एकत्व कराती है ॥ जगत में जो हृदय जिस लालसा के भाव से निकटता अनुभव करता है धीरे धीरे उसी का अभ्यास करता है ॥यह साधन काल है ॥ वहाँ एकत्व होने पर सिद्ध कहलाते हैं ॥ यहाँ कोई नवीन भाव वहाँ सेवा नहीं कर सकता ॥ वे समस्त भाव नित्य हैं केवल उनसे अभिन्नता प्राप्ति तक साधन अभ्यास किये जाते हैं ॥ दूजा यह कि यहाँ के मायिक देहाध्यास का वहाँ कोई प्रवेश नहीं ॥ अर्थात् कोई ये सोचे कि मैं .....वहाँ सेविका तो यह सिद्ध न होगा ॥वहाँ के नाम भाव रूप सेवा सब कुछ नित्य हैं ॥ नित्य अर्थात् जो सदा से था है और रहेगा ॥ नवीन कुछ नहीं केवल हमें स्वयं को पहचानना है कि हम वहाँ किस रूप हैं ॥ मैं ....होकर वहाँ सेवा नहीं पा सकती ॥जो वहाँ हूँ उसे यहाँ रहकर पहचानना होगा ॥
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग
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