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जीव स्वभाव तथा स्वरूप , मृदुला जु

जीव स्वभाव तथा स्वरूप

जीव स्वरूपतः कृष्ण दास है ॥यह कथन प्रायः सरलता से पढने व सुनने में आता है । परंतु इसका वास्तविक मर्म क्या है ॥ जीव स्वरूपतः दास है ॥दास कौन जो सेवा करे ॥और सेवा क्या है ॥सेवा वह नहीं जो हम जगत में देखते सुनते । क्योंकि वह सेवा जगत के अनुरूप है परंतु कृष्ण सेवा तो कृष्ण के अनुरूप ही होगी ॥जगत और जगदीश दोनों भिन्न स्वभाव वाले हैं । तो जगत में सेवा का अभिप्राय समझा जाता है वह स्वतः वहाँ खंडित हो  जाता है ॥तो कृष्ण सेवा क्या है ॥ किसी की सेवा करने के लिये उसके स्वभाव को जानना परमावश्यक है ॥बिना सेव्य का स्वभाव जाने सेवा सेवा न होकर कष्ट का हेतु बनेगी ॥कृष्ण स्वभाव कैसा , ऐसा जैसा कभी किसी का संभव ही नहीं ॥ कल्पना से भी अतीत है उनका दिव्य प्रेममय स्वभाव ॥ जब तक सेव्य के स्वभाव का निरूपण नहीं होगा सेवक के स्वभाव तथा सेवा का स्वरूप समझ नही आयेगा ॥परम विलक्षण है श्याम स्वभाव ॥ जीव जगत स्वार्थ के क्षेत्र में स्थित है अतः स्वार्थ से परे कुछ समझ नहीं पाता ॥ और वास्तव में तो वास्तविक स्वार्थ भी हमें नहीं मालूम ॥ हमारा वास्तविक स्वार्थ भी कृष्ण सेवा ही है ॥ खैर पहले अति सामान्य परिचय कृष्ण स्वभाव का ॥सरल शब्दों में कहें तो देना मात्र ही उनका स्वभाव है उनका सुख है स्वरूप भी है ॥ निज स्वरूपानंद का वितरण ही उनका सुख है जीवार्थ ॥ कोई भी जीव जब उनके नाम रूप लीला आदि का आश्रय लेकर रसास्वादन करता है तो उन्हें परम सुख होता है ॥क्योंकि वे आनन्द स्वरूप हैं और जीव जब भक्ति के द्वारा उनके आनन्द का भोग करता है तो श्रीकृष्ण को उस जीव को आनन्द उपभोग करता हुआ पाकर अपार सुख होता है ॥ वे अपने सुख से सुखी नहीं वरन हमारे सुख से सुखी होते हैं ॥ और ऐसा क्यों क्योंकि यही प्रेम स्वभाव है और वे परम प्रेम स्वरूप ॥ इसी कारण भक्ति की महिमा प्रेम की महिमा स्वयं गाते हैं वे ॥ वे चाहते हैं कि जीव मात्र उनकी भक्ति कर उनके आनन्द का लाभ ले सके ॥ परंतु भक्ति विशुद्ध हो तभी यह संभव है ॥ कामनाओं की लालसा से भजन भक्ति है ही नहीं । और वह कृष्णानंद कभी नहीं दे सकती ॥ तो क्या है सेव्य का सुख भक्ति  ॥यही भक्ति विकसित होकर गाढ़ा होकर प्रेम में परिणित हो जाती है ॥जहाँ आनन्द आस्वादन के स्थान पर आनन्द दान की लालसा उदित हो जाती है ॥और यही लालसा प्रगाढ़ होकर सेवा लालसा में प्रतिष्ठित होती है ॥ खैर यह बहुत आगे की अवस्था है ॥जीव के हृदय में जहाँ भक्ति का प्रादुर्भाव होता है वहाँ से भी वह कृष्ण सेवा ही करता है ॥परंतु जिसे वह सेवा समझ रहा होता है वह अर्चन पूजन आदि सेवा वस्तुतः न होकर वरन उसके द्वारा भक्ति के आश्रय से जो आनंद लाभ किया जा रहा है वह वास्तविक सेवा है श्रीकृष्ण की ॥ और यही सेवा करने का उपदेश जीव को समस्त महापुरुषों ने किया है ॥ जीव की सृष्टि कृष्ण सुख के लिये ही है ॥ जीव श्री कृष्ण को सुख कैसे दे सकता है यह पहले ही कह दिया है ॥भक्ति के द्वारा ॥लेकिन जीव अपने इसी कर्तव्य से धर्म से स्वभाव से भ्रमित होकर माया पथ पर भटक रहा है ॥ जीव का वास्तविक धर्म भी कृष्ण भक्ति ही है ॥वे तो स्वयं स्पष्ट कह रहे हैं "सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरण ब्रज ॥" क्योंकि जीव धर्म ही कृष्ण भक्ति कृष्ण शरणागति है ॥परंतु मायामोहित मनुष्यों ने न जाने क्या क्या जड आचरणों को धर्म की संज्ञा दे दी है ॥वह अलग विषय है ॥तो जीव दास है दास होने से सेवा ही धर्म है और भक्ति ही सेवा है ॥ और इसी वास्तविक सेवा से अर्थात् भक्ति से हम वंचित होकर भव सिंधु मे डूबे पडे हैं ॥बिना कृष्ण भक्ति के भव सिंधु से निवृत्ति संभव ही नहीं है ॥क्योंकि यही तो वास्तविक स्वभाव लब्धि है ॥अपनी वास्तविक पहचान को पाकर ही तो इस मिथ्या पहचान से मुक्ति संभव हो सकेगी ॥ तो उन्हीं के पावन श्री चरण कमलों में प्रार्थना है कि वे हमें निज चरणों की अविरल भक्ति प्रदान कर सेवा में स्वीकार करें । वही हमारा परम गंतव्य है अन्ततः ॥

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