Skip to main content

नव मधुर कुमुदिनी , संगिनी जु

*नव मधुर कुमुदिनी*

अति ही सरस एक उपवन जहाँ प्रकृति ने जैसे अपनी पूरी सामर्थ्य से अनंत अनंत रंग भर दिए हैं सौंदर्य के।जैसे सावन की नन्हीं बूँदों ने रात्रि के शशि की शीतलता में स्याम गौर घण दामिनी की सहज रसिक रंगीली रूप माधुरी का पान किया हो और फिर नई नवेली सुबह की अति सुकोमल पहली पहली अति सहज सरस सुकोमल रवि की रश्मियों का स्पर्श पाकर धरा को ही खिला दिया हो।पुरजोर रससार रस उर्मियों की सनसनाहट सी सिहरन से एक एक रज कण से एक एक अणु जैसे चमत्कृत होकर जागृत हो उठा जिससे फूटने लगा रस ही रस सर्वत्र और स्वतः ही सौंदर्य के सींचन में माधुर्य पनप उठा हो।
ऐसे में असीम सुंदरतम सुकोमलतम रूप की राशि से भरपूर दो माधुर्य से भरे रससार पुष्प जो सरसरा उठे परस्पर को निहारते हुए।मंद मधुर ब्यार के अति सुकोमलतम मंद झोंके ने इन्हें भीतर से छू दिया और ये रूप सौंदर्य से खिले नव नवीन दो पुष्प उस छुअन से महक कर परस्पर सुकोमल स्पर्श पाते कभी सिहरते कभी मुस्काते हुए महक बन एक दूसरे में घुलने लगे हैं।इनकी इस रसस्कित महक के परस्पर घुलने से इनका रूपमाधुर्य जैसे अनंत गुना और और और तरंगायित हो उठता है एवं प्रेम के रस से सराबोर इन युगल पुष्प की तन्मयता आस पास नवखिलित कलियों को भी रूपछटा में भिगोने लगी हो।
एक से दूसरा पुष्प यूँ मिलकर झूम रहा नृत्य कर रहा कि इससे सम्पूर्ण उपवन के श्रृंगार में चारचाँद लगाते रंगबिरंगे पुष्प खिल उठे और इस एकरंग में रंगे पुष्पसार को घेर अत्यधिक रूप से और सजाने लगे हैं।एक तरफ पीतवर्ण अति सुकोमल पुष्प से कर मिलाते अति सुंदर पीले नारंगी पुष्प खिल उठे और दूसरी ओर अति सुकोमल नीली नीली फुहियों से युक्त अति सुकोमल नीलकमल से अनंत नीले पुष्प खिल रहे जैसे उपवन नहीं कोई रासमंडल हो जहाँ एक से बढ़ कर एक सुंदर सुकोमल पुष्प दूसरे से मिल परस्पर श्रृंगारित हो रहे हैं।
अति सरल रूप और सौंदर्य हो तो वहाँ माधुर्य होगा ही और फिर उस माधुर्य रस के पारखी भ्रमर स्वयं ही खिंचे चले आएँ इसमें आश्चर्य तो नहीं ना जैसे वेणु नाद अति गहनतम हो और उस नाद में होगी एक मधुरता जो स्वतः ही संकेत करती है कि कुछ कहा जा रहा है इस वेणु नाद के जरिए और शायद एक पुकार ही जो खींच लाती उस नाद में प्रतिध्वनित नामी को।स्पष्ट है ना यह सौंदर्य और माधुर्य सहज प्रेमी ही परस्पर जिनका अनंत युगों से भिन्न कोई आस्तित्व ही नहीं।
प्रकृति ने उपवन को सजाया है।तरह तरह के रंग बिरंगे पुष्प भी खिल आए हैं और वो खिले पवन की सरस छुअन से जो महक बन इन पुष्पों से पराग को यहाँ वहाँ बिखेर रही जैसे प्रेम के आवरण तले रस की छुअन से महक निसरित हो रही हो।
सर्वत्र पुष्प ही पुष्प खिल आए ऐसे जैसे पुष्पों की सेज बिछी है और पुष्पों की सेज को पुष्पों की ही झालरों ने सजाया है।पुष्पों की झालरों के मध्य पुष्पलहरियाँ लता और बंदनवार बन बिखर सिमट रही हों।पुष्पों की ही महक सुकोमल पुष्पबाण बन परस्पर पराग कणों को छिटकाते सब रंगों को एकरंग कर रहे और ज्ञात ही ना हो रहा हो कि कहाँ इस अनंत रस का आगाज़ और कहाँ क्या कभी कोई अंत भी।
अतीव सौंदर्य माधुर्य की अतीव रंगबिरंगी रसकणिकाएँ जो स्वयं श्रृंगारित हो परस्पर श्रृंगार करती उन दो अति सौंदर्यवान पुष्पों का नव नव श्रृंगार कर रहीं हैं।
और इन अति सरस पुष्प रसतरंगों की महक पर न्यौछावर होती इन्हीं पुष्पों की महक जो खींच लाती भ्रमरों को जो हैं रसिक इस अनंत माधुर्यमय रूपसौंदर्य के जो सुकोमलतम पुष्प बन नित्य नवीन सदैव खिले रहते चाँदनी रातों के नीले आवरण तले और महकाते अनंतानंत अर्धखिलित कलियों को। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !! श्रीहरिदास

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात