मर्जी (इच्छा)
मर्जी कितना चितपरिचित शब्द है न यह ॥ मेरी मर्जी ॥मर्जी अर्थात् इच्छा ॥ हम सदैव अपनी इच्छा पूर्ति के लिये ही जीते हैं ॥क्यों क्योंकि सुख मिल रहा इससे या सुख मिलने का भ्रम मात्र हो रहा ॥ परंतु प्रेमी का सुख उसकी स्वयं की इच्छा पूरी करना नहीं वरन श्यामसुन्दर की इच्छा पूरी करना है ॥ इसे साधारण बात न समझिये ॥ प्रेम की चरम पराकाष्ठा है प्रियतम की इच्छा पूरी करने की लालसा ॥ यह तत्सुख से भी गहन अवस्था है ॥ इसके लिये बहुत सूक्ष्मता से चिंतन करना होगा ॥ प्रियतम को सुख होवे जिससे वह करा जावे यह तत्सुख की प्रारंभिक स्थिती है ॥ क्योंकि प्रेमी को प्रियतम के सुख की अनुभूति होने लगती है तो वह चाहता है कि प्यारे को इसी प्रकार सुख मिलता रहे ॥ धीरे धीरे प्रेम गाढ़ होने पर तत्सुख की लालसा भी गहन होती जाती है क्योंकि प्रेम और तत्सुख एक ही तत्व हैं इनमें कोई भेद है ही नहीं ॥ जिस प्रकार काम और स्वसुख पर्यायवाची हैं ॥ परंतु प्रेम जब प्रगाढ़ता को पहुँचता है अर्थात् तत्सुख की लालसा धीरे धीरे गहन तृष्णा में परिवर्तित होती है तो एक नवीन भाव स्थिती का उदय होता है ॥ अब यहाँ प्यारे के सुख से भी अधिक प्यारे की इच्छा पूरी करने की महानतम् तृष्णा का उदय और क्रमशः विकास होने लगता है ॥ धीरे धीरे ये गहनतम तृष्णा इतनी गाढ़ हो जाती है कि प्रेमी का समग्र अस्तित्व उसका पूर्णतम् स्वरूप ही प्रियतम की इच्छा रूपी सिंधु में सदा के लिये विलीन हो जाता है ॥ रोम रोम द्रवित होकर प्रेमास्पद की इच्छा में घुलकर मिट जाता ॥तुम्हारी इच्छा ही स्वरूप हो जाये मेरा ॥ अब जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है वहाँ वह केवल और केवल मात्र प्रियतम की इच्छाओं का साकार विग्रह ही होता है ॥ यह स्थिती कल्पना से चित्त में नहीं आ सकती परंतु यही श्रीराधिका का स्वरूप है ॥ वे जैसी दिखाई देती हैं जो कहतीं हैं करतीं हैं वह परम विचित्र और श्यामसुन्दर पर स्वामित्व प्रतीत मात्र होता है वास्तव में है नहीं ॥ श्यामा के रूप में जो विग्रह लीलायमान है वह और कुछ नहीं श्यामसुन्दर की अनन्त रस लालसाओं का कामनाओं का और अनन्त इच्छाओं का मूर्तिवंत स्वरूप ही है ॥ किशोरी का अद्भुत सौंदर्य श्याम के हृदय की रूप लालसा है ॥ किशोरी के हाव भाव , भाव भंगिमायें भी प्यारे के हृदय की इच्छानुरूप ही संचालित होतीं हैं ॥श्री प्रिया की भ्रू भंगिमा तक प्यारे की इच्छा मात्र से कंपित होती है ॥तो संपूर्ण स्वरूप और लीलाओं की तो बात ही क्या ॥ बाह्य रूप से चाहे जैसी भी लीला होवे कितना ही कठोर मान धारण किया है प्यारी ने परंतु वास्तव में उनका मान केवल और केवल रस के अतल सिंधु में ही निमज्जन कर रहा है प्यारे का ॥ कृष्ण इच्छा ही राधा हैं ॥ श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने राधा जी का स्वरूप बताते हुये सबसे उपरांत कहा "श्रीकृष्ण वांछा कल्पतरु "॥ इसका अर्थ हमने लगाया कि श्यामसुन्दर के हृदय में जो कामना इच्छा उदय होती है श्री राधिका पूर्ण कर देतीं हैं परंतु ये तो साधारण कल्पतरु का स्वरूप हुआ ॥ कल्पतरु तो अपना पूर्ण पृथक अस्तित्व रखता है और केवल कामना की पूर्ति भर करता है ॥ श्री राधिका तो प्रेम कल्पतरु हैं जो प्रेम में अपना संपूर्ण अस्तित्व ही विलीन कर प्रियतम की इच्छा का कल्पतरु होकर प्रकट हो गयीं हैं ॥ श्री प्रिया का रोम रोम प्यारे की इच्छा के सांचे में ढला हुआ है ॥प्रियतम इच्छा से परे राधा तत्व है ही नहीं ॥ कल्पना कीजिये की एक सांचा है जिसमें द्रवित द्रव भर दिया जावे जिसका स्व न रूप रहे न आकार न गुण न कुछ अन्य लक्षण ॥ वह बाहर भीतर केवल सांचे के अनुरूप हो जावे ॥ यह हमारी मायिक जड मति को समझाने का एक निकृष्ट दृष्टांत मात्र है ॥ वास्तविक स्थिती उनकी कृपा से ही हृदयंगम हो सकती है ॥ बाह्य रूप से युगल की लीलायें अधिकांशतः भ्रम उत्पन्न कर देती हैं ॥ समस्त संसार श्री राधा को कृष्ण स्वामिनी ही कहता है जानता है परंतु वास्तविक स्वरूप में वे क्या हैं यह उपरोक्त वर्णन से किंचित मात्र प्रकट होवे ॥ श्यामसुन्दर के मन की समस्त कामनाएँ साकार होकर सन्मुख हैं राधारूप में ॥ इन्हें हम प्रियतम का हृदय भी कहते हैं ॥ परंतु जीव द्वैत से परे नहीं सोच सकता तो हम सोचते हैं कि एक श्री राधा हैं जो श्यामसुन्दर को हृदय सी प्यारी हैं परंतु यह स्वरूप नहीं उनका वरन वे ही साक्षात् हृदय हैं मोहन का ॥मायिक जगत में ये होता नहीं तो हम स्वीकार नहीं कर पाते ॥ हृदय अर्थात् कामनाओं का निवास स्थल तो वही तो हैं वे कृष्ण कामना साकार विग्रह ॥
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