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विरह किसका ?? मृदुला

विरह किसका ......

क्या मैं विरहित हूँ तुम्हारी ! यदि कहुं हां तो यह सर्वथा मिथ्या है । सच तो यह है कि मैं कभी विरहिणी हुयी ही ही नहीं । मेरे जीवन में तुम्हारी प्रथम स्मृति के पदार्पण से पूर्व ना जाने कितनी प्रतीक्षा की होगी तुमने कि कब वह क्षण आये जब तुम स्मृति रूप मेरे जीवन में प्रवेश करो । मेरे इस जन्म से लेकर ना जाने कितने जन्मों तक प्रतीक्षारत रहे होंगें तुम । स्मृति रूप आये तुम तो क्या तुम्हारी प्रतीक्षा का अंत हो गया । नहीं मैं तो तुम्हारे आकर्षण के सिंधु में डूबती उतराती रही केवल । केवल गहन कभी उथली कभी विकल तो कभी विमुख कभी व्यग्र तो कभी विस्मृत । पर तुम नित्य एकरस ना जाने कितना प्रेम हृदय में समेटे प्रतीक्षा किये जा रहे थे और मैं तुम्हारी प्रतीक्षा से अनभिज्ञ तुम्हारे वियोग की ज्वाला से अपरिचित । निज विरहानल की लेश मात्र अनुभूति जैसे ही कराई तुमने  मेरा संपूर्ण अस्तित्व जैसे भस्मीभूत होने लगा । ना जाने तुम कैसे सहते होंगे ऐसा विरहताप । तुम्हारे हृदय के ताप की छाया के अणुमात्र ने पावन किया मोहे । अपने चिन्मय स्पर्श के योग्य किया मोहे उस अग्नि प्रवेश से जैसे स्वर्ण को अग्नि ही कुंदन करने में समर्थ है । कितने समय की प्रतीक्षा तुम्हारी जैसे पूर्ण होने को हुयी ।आहा .....मेरी है तू । केवल मेरी मेरी मेरी मेरी .........। पर यह क्या ....!यह क्या घटा सहसा । पुनः विरहताप झुलसाने लगा तुम्हें । नहीं अभी नहीं .....। अभी तू संपूर्ण न हुयी प्यारी । आह ..अभी और सहना होगा तेरा वियोग मेरी ....। प्रियतम प्रियतम कहाँ गये तुम मोहे तज । हाहाकार रहा प्राणों में । मौन तुम निःशब्द अपनी पीडा को पीते हुये एक बार पुनः विरह के सिंधु को जीने लगे । प्यारी तू मेरी है संपूर्ण मेरी तो संपूर्णता के लिये अभी और यात्रा शेष है । परंतु यात्रा किसकी है प्रियतम ! मेरी कहाँ यह यात्रा यह भी तुम्हारी ही है तुम्हारे विरह के समान । तुम ही तो पथिक को प्रेम पथ के । आते हो मुझ तक हर बार मैं तो वहीं हूँ जहाँ प्रथम क्षण थी । क्या प्रेम पथ मेरा स्वत्व है प्यारे ...कदापि नहीं । तुम्हारी ही यात्रा है मेरा तुम्हारी होने तक । सच कहुँ कोई अतिशयोक्ति न मानना हृदयधन , साधना भी तुम्हारी ही होती है सदा । तुम्हीं साधना करते हो नित्य मुझे अपनाने को .....प्रेम साधना । पुनः एक बार तुम साधना में डूब गये मुझे संपूर्ण अपनी बनाने के लिये । तुम ही यहाँ भी तुम ही वहाँ भी केवल तुम प्रियतम । काल अपनी गति से गतिमान है । ना जाने कितनी प्रतीक्षा अभी शेष है तुम्हारी । भूल चुकी हूँ मैं वह मधुरतम् क्षण प्यारे  । पर तुम तो अभी भी वहीं उसे जी रहे हो । खो गयी मैं समय की लहरों में पर तुम तो नित्य विरहित । जो भूल चुका वह विरह किस प्रकार अनुभव करेगा । विरही तो वह है जो कभी भूला ही नहीं भूल सकता ही नहीं  । आज भी तुम राह देख रहे हो मेरे लौटने की । मैं तो सुख से जी रही हूँ इस जीवन को और तुम मेरे विरह को । क्या कभी तुम्हारे विरह की अनुभूति होगी मुझे । मैं तो प्रसन्न हूँ तुम्हें भूल प्यारे पर क्या करो तुम कि तुम्हें भूलना नहीं आता ....... अनादि से अनन्त तक मुझ तक आना केवल तुम्हारे यात्रा है प्रियतम ।तुम ही हो मेरे चिर प्रेमी मेरे चिर विरही .......

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