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जानना , मृदुला जु

जानना

हम सब इस शब्द के अर्थ से परिचित हैं परंतु क्या वास्तव में जानते हैं जानने के अर्थ को ॥वास्तव में जानने का सच्चा अर्थ है जीना ॥ जानने का अर्थ परिचय मात्र नहीं है ॥ जिस चेतना अथवा तत्व को जानने की इच्छा है उसमें उतरकर उससे एकाकार हो जाना ही वास्तविक जानना है परंतु उस तत्व या चेतना से एकाकार होने के लिये स्व को खोना अवश्यंभावी है ॥ यदि स्व का सूक्ष्मतम् अणु भी शेष रह गया तो पूरा जाना ही नहीं गया अभी ॥ मैं किसी फलां व्यक्ति को जानता हूँ परंतु सूक्ष्मता से चिंतन कीजिये कि क्या मैं उसे जान रहा हूँ या उसको अपने दृष्टिकोण से किसी खांचे में बैठा रहा हूँ ॥ यह खांचे तो मेरे ही द्वारा निर्मित हैं तो वास्तव में उसे जाना ही कब ।यदि "ख" "क" को जानना चाहता है तो "क" ही होना पडेगा ॥और क होने के लिये  ख को तो खोना ही पडेगा ॥ और जब ख संपूर्ण खोकर क को पूरा अनुभव कर सकेगा तो उस क्षण वह "क"ही होगा ख तो मिट चुका ॥ यदि ज्ञाता और ज्ञेय का एक हो जाना है ॥ ज्ञान की पूर्ण अवस्था पर भेद मिट जाता है जो जानने आया था वह जान चुका और जानने के पश्चात स्वयं ज्ञेय हो चुका ॥ हमारे समस्त धर्मग्रंथों में अथवा कहा जाये की जीवन ग्रँथों में इस स्थिती को पुनः पुनः कहा गया है ॥ श्रीरामचरितमानस मानस में गोस्वामीजी कह रहे हैं "सोई जानत जनु देई जनाई जानत तुमहि तुमहि होई जाई "॥ तो जानने का अर्थ ही है स्वयं को खो देना ॥ कोई यह कहे कि मैं अमुक तत्व को जानता हूँ अथवा अमुक चेतना को उसके मन को स्वभाव को तो यह नितांत भ्रम ही है क्योंकि जब तक मैं अर्थात् जानने वाला शेष है को वास्तव में जाना ही नहीं गया । कुछ अंश में जानना कवि का जानना है जो चोर की भांति उस ज्ञेय की चेतना में प्रवेश कर उसके किसी अंश को अनुभव कर आया है ॥ ज्ञाता और ज्ञेय की अभेदता धर्म में ( आध्यात्म ) में ही घट सकती है ॥ यहीं समग्रता से जानना संभव है ॥ हमारे संपूर्ण आध्यात्म का उद्देश्य ही अभेदता प्राप्त करना है ॥ पूर्ण अभेदता प्राप्त भी केवल उसी परम सत्ता परम चेतना से की जा सकती है ॥ क्योंकि परम ज्ञेय ही वही है ॥ ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य ही वही है और जब तक "वह"जाना नहीं जायेगा तब तक बार बार संसार में पुनरावृत्ति होती रहेगी क्योंकि संसार है ही इसिलिए की उस परम चेतना को जान लिया जावे ॥ तृषित ।। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।।

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