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प्रेम ....एक संक्रमण , मृदुला जु

प्रेम ....एक संक्रमण

प्रेम एक संक्रमण है ॥ यहाँ बात जागतिक प्रेम की नहीं , वह तो कभी हमारी चर्चा का विषय ही नहीं ॥ बात हो रही शुद्ध प्रेम की कृष्ण प्रेम की ॥ कृष्ण प्रेम एक महा संक्रमण है ॥ जिसे कहते हैं न छूत का रोग बस वही है यह ॥ संग से फैलता है ॥संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने वाले व्यक्ति पर संक्रमण का प्रभाव उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमतानुसार ही होता है ॥यदि उसकी रोग प्रतिरोधी क्षमता मजबूत है सक्षम है तो संक्रमण का प्रभाव देर से होगा अथवा संभवतः होगा ही नहीं परंतु यदि यह शक्ति निर्बल है तो शीघ्र ही वह भी संक्रमित हो जायेगा ॥ यही स्थिती कृष्णासक्ति रूपी संक्रमण की भी है ॥यदि संग करने वाले का हृदय निश्छल , भावुक तथा सरल है तो अतिशीघ्र ही वह भी उन सर्वाकर्षक चितचोर मनहर के आकर्षण जाल में उलझ जायेगा ॥परंतु यदि वह कोई चतुर सुजान है हर बात को तर्क की बुद्धि की कसौटी पर कसता है या भावुकता अर्थात् हृदय की तरलता से उसका कोई संबंध ही नहीं तो संक्रमण देर से होगा अथवा यह भी संभव है कि उस आकर्षण का कोई अणु उसे स्पर्श ही ना करे ॥ किसी प्रेमी का किसी कृष्णासक्त का संग कर लीजिए बस । पर संग सहज होवे ॥ यदि अनजाने में होवे तो प्रभाव और शीघ्रता से होगा ॥ आसक्त  सदा अपनी आसक्ति में ही डूबा रहता है ॥ दिन रैन उसी का चिंतन ॥उसी का यशोगान सहज स्वभाव हो जाता है ॥ ऐसे कृष्णासक्त के संपर्क मे आने वाले के कर्ण कुहरों में स्वतः ही उस मनहर की रूप माधुरी लीला माधुरी प्रवेश कर जायेगी ॥ और एक बार यदि किसी प्रेमी किसी रसिक की वाणी हृदय को छू गयी तो शेष तो वह स्वतः ही समर्थ है ॥ संक्रमण तो है ही वह जो ना चाहते हुये भी अनजाने में ही हो जावे ॥वहाँ स्वीकृति के लिये अवकाश ही कहाँ ॥ प्रेमी सदा अपने प्रियतम की चर्चा करना चाहता है ॥इसमें अद्भुत रस होता है ॥ जो भी उसका संग करता है उसे सहज ही उस माधुरी की उस  परम चित्ताकर्षक ब्रजराजकुमार के रूप लीला गुणानुवाद का स्पर्श प्राप्त हो जाता है ॥ यह स्पर्श वस्तुनिष्ठ ना होकर व्यक्तिनिष्ठ होता है ॥अर्थात सब पर भिन्न भिन्न उनके हृदय की मन की तरलता पर निर्भर है ॥ तरल द्रव सहजता से किसी भी स्पर्श को स्वीकार कर लेता है , कठोरता का अपना सीमित दायरा होता है ॥ पात्र में भरा जल हो या सरोवर का जल एक हल्का सा स्पर्श भी वह स्वीकार कर तरंगायमान हो जाता है ॥उसका अपना कोई आग्रह ही नहीं है अस्वीकृति का ॥परंतु किसी ठोस वस्तु को कितना भी स्पर्श किया जाये वह कुछ ग्रहण करने को तैयार ही नही ॥ तो जिन्होंने पहले ही अपनी सीमायें बांध ली और न केवल बांधी वरन कठोरता से उन्हें यथावत् ही बनाये रखने को प्रयासरत हैं उन्हें ये रस संक्रमण कैसे भला स्पर्श करे ॥ जो सरल हैं जिन्होंने कोई पूर्वाग्रह रखा ही नहीं उन्हें तो पता भी नहीं चलता और वह उस रसराज के रस संक्रमण से स्वतः ही संक्रमित हो जाते हैं ॥ जिस प्रकार एक प्रकाशित दीपक की बाती अनेक दीपकों को प्रकाशित करने का सामर्थ्य सहेजे होती है उसी प्रकार रसराज के रस में निमग्न व्यक्ति अनेकों को वह रस स्पर्श देने में सक्षम होता है ॥ तृषित ।। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।

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