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रसधाम श्रीवृन्दावन भाग 2, संगिनी जु

रसधाम श्रीवृंदावन भाग 2

कभी दरस तो ना कियो री बीर फेर भी जाने क्यों मन बार बार वहीं भाग चलता है जहाँ सखियन संग श्रीयुगल परस्पर निहारन में मग्न एक दूसरे में डूबे हुए रहते हैं।ऐसो सांचो नेह की का बात करूँ री जिसे इन प्यासे दृगों ने चाहा पर निरखा ना।
रसधाम श्रीवृंदावन सहज प्रेम की धरा पर सींचित सहज सुंदर सलोने युगल प्रेम के अति सुकोमल अनियारे नेहभरे पुष्प लताओं से सुसज्जित सुमन सेज सी प्रतीत होवै।सांची बात सखी री कभी जानी ना थी कि यह लीला रसधाम सच में यहीं इसी धरा पर है कहीं।अरी मोये तो लागे जैसे यह रसधाम मेरे स्वप्न संगम की कोई कल्पना ही हो पर सच तो तब जानी जब अपनो कोई जाए के बताए दियो कि यो तो सांची प्रग्टयौ है री।अद्भुत ब्याकुल हियो ते तब एक ना दो सैंकड़ों सवाल और गहन रस संचालन घटित भयो या हिए ते।
और सखी तब तो जैसे या जगत की ठौर ही ना रही कि बस याही धाम ही सांचो और याकी प्रीति ही भली।
तब से आज तक सखी मन अति अधीर भयो और छिन छिन जुग समान बतीत होए रह्यौ।तब ते कृपा की कौर की तनिक सी दृष्टि की चाहना लिए आस पर जिय धराए रही कि कभी ते वह सुबह या साँझ जिंदगी के किसी पल आएगी री जब इन आँखिन कौ सुख होयगो जन्म भर कौ।
या घरी कौ इंतजार ते सखी आज यो मन रस भयो।रसधाम रसजुगल रससखी और रसनेह ते ऊपर कछु ना सुहाए।
जानू परखूं ना अनपढ़ गंवार कू कोए तत्व ज्ञान ना है और ना कोई दैवीय भगवद भजन की रीति ही जानूं।बस इतनो ही जानूं कि याकी व याके रसधाम की सुधि ने ऐसो रंग दियो तन मन अंतर्मन कू कि अब जगत की खाक ना छानी जाए बस खुद मधुर छन छन पायल नूपुर की तान ते सखी याके सांचे रसिकबर की सरणि परि याके रस को जानन तांई वेणु रव में गूंजती रसधमनियों कू सुनूं।
ए री सखी !जानै है री याकी वेणु में एक नाम सुनाई आवै है मोकू और उस मधुरता से भरे तनप्राणों को झन्कृत कर देने वाले सुंदर नाम में छुपे अनंत रस के अनंत भाव जो जाए के समाए रहै याके हिय मांहि।
रसधाम की धरा पर दो पग डोलते फिरते किशोरी जु चरणों तले बिछै है याको हिय री सजनी और याके हिय पर खिलते उभरते अति सुकोमल सुमनों की महक से या रस ऐसो निखरे है कि स्पर्श मात्र से युगल हंस हंसिनी मयूर मयूरी कोयल कपोत शुक सारि सब चरणों की थाप की सुकोमल ध्वनि व वेणु रव में डूबे थिरक उठते हैं री।
सखी री ये रसधमनियाँ और कछु ना हैं अपितु सखियन के हिय की सुंदर अति प्रिय भावभंगिमाएँ हैं जो युगल कौ सिंगार रस हेत नित्य नव गुंजायमान करतीं और नित्य नव रस की हितु नव नव राग रागिनियों सम थिरकती निरखती रहतीं।सखी याके रस की धरोहर ये सखियन रसतरंगिनियाँ प्रतिपल उन प्रेमी युगल में सम्माहित होतीं उन्हें नव नव रंग में निरखती दृगन ते सुख जान मधुरस में भिगोती रहतीं।
सखी ये सखियन ही याके रस संचालन की परम हितकारी सिंगार रस की अधिष्टात्री प्रिया जु के रोम रोम की सौभा बनी स्यामसुंदर को आकर्षित करतीं और युगल सम वय सम रस में जब रस अट्ठकेलियों में अनंत गहन डुबकियाँ लगाते तो ये सखियाँ और अधिक रसनेह कू संचार करतीं और युगल के सुख में अति सुखासीन होतीं।
सखी री रसीली रंगिनी संगिनी सखियाँ रसधाम में भी रससंचार हेत रसिक स्वरूप धर विहरन करतीं और धाम के कण कण में युगल दरस कर निहाल होतीं रहतीं।
ऐ री प्रिय सखी कब मैं या सखियन के चरणन की धूलि को मस्तक धरूँगी री और कब इन सूनी आँखिन सौं नयनाभिराम युगल की रसमाधुर्य युक्त रसखेलियाँ निरखूंगी री।कब रसधाम वृंदावन की रज माथे पर धर हिय में रस उतार तृप्त होऊंगी री।अभी तो सखी री या ब्याकुलता ही रस बन रगों में थिरकती मोए जिला रही री !!

कृपाकौर अभिलाषणी
युगल रस अनुरागिनी
रसिकन चरण रेणु धारिणी हर्षिणी
जयजय श्रीयुगल
जयजय श्रीवृंदावन !! युगल संगिनी ।।

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