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पुकार , मृदुला जु

पुकार

पुकारा कब जाता है जब हमारा प्रिय खो जाता है तब उसे वापस पाने को पुकारा जाता है ॥ तो खोया कौन है और कौन पुकार रहा है ॥ खो हम गये हैं और पुकार हमारे प्रियतम रहे हैं ॥ हां वहीं हमारे परम जीवन धन परम सर्वस्व परम प्राण प्रणेश्वर श्यामसुन्दर ही तो पुकार रहे हैं हमें क्योंकि खो जो गये हैं हम माया के अपरिचित राज्य में और इस खोने के कारण ही पा रहे है अनन्त कष्ट ॥ खोने वाले तो यह भी भूले हैं कि वे खो चुके हैं ॥हम तो यह मानने को भी तैयार नहीं कि खोये हुये हैं हम ॥ तो पुकार रहे हैं वे हमें नित्य , नित्य करते हमारे प्रत्युत्तर की अनवरत प्रतीक्षा ॥ कि कहीं कोई उनका प्यारा तो सुन ले उनकी प्रेममय पुकार और लौट चले अपने मूल की ओर जिससे वह भटक गया है ॥ कितनी अनन्त है उनकी प्रतीक्षा क्या कभी थाह भी पा सकेंगे हम उनकी प्रतीक्षा की ॥ ना जाने किस किस रूप में पुकार रहे हैं ॥ ये रूप माधुरी जो कभी क्षणार्ध भर में ही बस जाती नेत्रों में प्यास बनकर और व्याकुल कर देती है मन को इसे खोजने के लिये क्या ये उनकी पुकार नहीं ॥ ये लीला रस जो कहीं से उतर जाता है हृदय में श्रवणेन्द्रियों से होकर और बांध लेता है सर्वस्व को उन्हीं के कोमल चरणों से क्या यह उनकी पुकार नहीं ॥क्या ये संत ये रसिक जो गा रहें हैं अनवरत उनका रस क्या यह उनकी पुकार नहीं ॥ न जानें कितने ही स्वजनों को भेजते हैं जगत में कि ले आओ मेरे अपनों को जो खो गये हैं क्या यह उनकी पुकार नहीं ॥क्या क्या नहीं बिखेर रखा उन्होंने जगत् में जो ले चले उनकी ओर ॥ पर हम तो इतनी दूर निकल आये हैं अपने ही व्यर्थ  अनुसंधान में कि उनकी प्रेममय पुकार कानों में पहुँच ही नहीं पा रही ॥ पर फिर भी सुननी ही होगी हमें उनकी पुकार ॥ तो क्यों न अपनी संकीर्णताओं को छोड हर उस रज्जु को थामने का प्रयास करें जो इस भवसिंधु की उत्ताल तरंगों से उबारने के लिये वे हमारी ओर बढा रहे हैं ॥ क्यों न सुनने का प्रयास करें उनकी पुकार को ॥कभी काल के किसी छोर पर कोई बिंदु उनकी पुकार का सहसा हमारे हृदय को स्पर्श कर जाये ॥ कभी अनन्त काल से देखे जा रहे इस महामोह स्वप्न को भंग कर दे उनकी वेणु ॥ हम भी तो प्रतीक्षा करें उनकी कभी ॥क्यों भाग रहे दूर हम अपने ही उद्गम से अपने चिर लक्ष्य से ॥ क्यों अनसुनी कर रहे उनकी पुकार ॥ सुनना है सुनना होगा ही उन्हें क्योंकि अन्य मार्ग ही नहीं लौटने का ॥ हमारे लौटने के पथ पर वे नेत्र संजोए प्रतीक्षारत हैं अनन्त युगों से ॥ क्यों न हम भी प्रयास करें अपने नेत्र अपनी श्रवणेन्द्रियों अपने हृदय के द्वार खोल उनकी प्रेम भरी पुकार को सुनने का ॥

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