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प्रेम प्रेमी और प्रेमास्पद् .. एक तत्व त्रिरूप

प्रेम प्रेमी और प्रेमास्पद् .....एक तत्व त्रिरूप

जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में कोई भेद नहीं जो ज्ञेय है वही ज्ञान है परंतु ज्ञान से पूर्व भेद की सत्ता प्रतीत होती है उसी प्रकार प्रेम तथा प्रेमास्पद एक ही हैं ॥परंतु यह एकता प्रेमानुभूति से ही लब्ध होती है ॥ हमें प्रियतम श्री श्यामसुन्दर पृथक लगते हैं और हम प्रेम कर रहे ये मानते हैं परंतु जिस प्रकार ज्ञान की पूर्णता पर ज्ञाता ज्ञान तथा ज्ञेय एक तत्व रूप स्थित होते हैं उसी प्रकार प्रेम  की पूर्णता (प्रेम नित्य अपूर्ण ही है परंतु उस अपूर्णता की अनुभूति जहाँ से अनुभव होती है उसे वहाँ तक पहुँचने की यात्रा की पूर्णता माना जाता है ) पर प्रेम प्रेमास्पद प्रेमी एक तत्व ही तीन रूपों में विलस रहा प्रकट होता है ॥ वास्तव में प्रेमी तो कोई वस्तु है ही नहीं ॥ प्रेमी तो हमने उस पात्र को कह दिया भर है जिसमें प्रेम रस लीलायमान हो रहा ॥ प्रेमी अर्थात् जो प्रेम को धारण करे । जैसे पात्र जल को धारण करता ॥ उस पात्र का मात्र इतना ही प्रयोजन है रस की स्व लीला में ॥ पात्र प्रेम नहीं है पात्र में प्रेम है ॥ मैं नामक कोई तत्व प्रेम करता ही नहीं ॥ प्रेम ही प्रेम करता है ॥ प्रेमी भी प्रेम स्वतः ही होता है जिस प्रकार प्रेमास्पद भी वही है ॥ पात्र केवल उस प्रेम के लक्षणों को प्रकट कर सकता है अनुभूति को कदापि नहीं क्योंकि अनुभूति प्रकट करने के लिये उस पात्र को प्रेम ही होना पडेगा ॥ यह अति सूक्ष्म व गहन चिंतन है ॥ प्रेम ही प्रेमास्पद से पृथक हो प्रेमी हो जाता है शेष कोई अन्य प्रेमी नामक तत्व या वस्तु होती ही नहीं है ॥ किसी सीमा तक पात्र की उपयोगिता तथा आवश्यकता है परंतु एक सीमा के परे पात्र भी पात्र रहता ही नहीं वह भी उसी प्रेम रस सत्ता से एकाकार हो विलीन हो जाता है ॥ यह ऐसा है जैसे किसी घडे में जल भरा हो और फिर एक दिन संपूर्ण घडा ही जल हो जावे ॥ उसी प्रेम रस में विलीन होना है प्रत्येक पात्र को क्योंकि प्रेम, रस है घडा नहीं  ॥ समझना थोडा मुश्किल हो सकता है यह ॥ वास्तव में घडा केवल माया जनित अनुभूति ही है जिसका चिन्मय प्रेम रस राज्य में कोई अस्तित्व ही नहीं है ॥ यहाँ के किसी मायिक स्वरूप का , अस्तित्व का अध्यास लेकर वहाँ रस की रस से लीला में अवस्थित हुआ ही नहीं जा सकता ॥वहाँ केवल रस की ही निरदव्न्द सत्ता है ॥ वहीं रस अनन्त रूपों में विलसन रहा है ॥ परंतु घडे में रस का पदार्पण हुये बिना घडा रस हो नहीं सकता ॥ ये रस इतना विलक्षण है कि यदि एक बार किसी घट में प्रकट हो गया तो उस घट के समस्त अस्तित्व को शनैः शनैः अपने में विलीन कर ही लेता है ॥ फिर रह जाती है तो केवल रस की सत्ता ॥ ज्ञान मार्ग की भी यही प्रकिया है बस अन्तर यह है कि वहाँ ब्रह्म से अभेदता सिद्ध होती है और इस प्रेम रस राज्य में उस ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा श्री कृष्ण की रस रूपता अर्थात् उनकी आह्लादिनी से ॥ प्रेम ही प्रेम का दृष्टा होता है प्रेम ही प्रेम का भोक्ता और प्रेम ही भोग्य होता है प्रेम का ॥ द्वितीय कोई है ही नहीं ॥प्रेम ही प्रेम का विषय हो आश्रय हो लीला रस में इसी प्रेम का आस्वादन करता है ॥आस्वादन आस्वादक और आस्वाद्य एक ही है ॥

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