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प्रतिध्वनि (पुकार 2) , मृदुला जु

प्रतिध्वनि

भजन उसी का सच्चा है जो प्रियतम के भजन को समझ सके । पुकार लगाने की नहीं सुनने की लालसा हो सके बस ॥ माधुर्य व्यसन-आसक्ति और प्रेम हो तब यह प्रीति (माधुर्य) रहस्य हृदयस्थ हो पाते है ॥ वे नित्य पुकार रहे ॥ और हमारी श्रवणेन्द्रियों तक हृदय तक उनकी पुकार पहुँच ही नहीं पा रही ॥ जीव को केवल सुननी है उनकी पुकार ॥ समस्त साधन भजन इसी हेतु हैं कि हृदय पर पडे आवरण छिन्न भिन्न हो सकें और उनकी प्रेममयी पुकार जो हृदय को स्पर्श नहीं कर पा रही इन आवरणों के कारण वह हृदय में उतर सके ॥ भजन से साधन से हृदय द्वार खुलने पर प्यारे की मधुर पुकार वहाँ प्रवेश कर सकेगी और उसके पश्चात् इधर से जो पुकारा जायेगा उन्हें वह तो केवल उन्हीं की पुकार की प्रतिध्वनि मात्र है ॥ उस सर्वाकर्षिणी मधुर पुकार की मधुरता को तृषा को व्याकुलता प्रतीक्षा को जितना जितना अनुभव किया जा सकेगा उतनी ही मधुर प्रतिध्वनि स्वतःस्फूर्त होगी यहाँ से ॥ जितना ग्रहण कर सकेंगे उतना ही लौटा सकेंगे ॥ वेणु पुकार ही तो है न , सर्वविदित यह तत्व ॥ वेणुगान के समय समस्त त्रिभुवन में यह रव प्रवाहित हो रहा है समस्त चराचर के हृदय में उतर विवश किये दे रहा है परंतु इस वेणुरव की प्रतिध्वनि मात्र गोपियों के द्वारा ही की जा रही है प्रियतम के निकट पहुँचकर ॥क्योंकि जैसा उन्होंने ग्रहण किया वेणु को वैसा त्रिभुवन में अन्य किसी ने नहीं ॥ गोपियों के प्रेममय समर्पण प्रतिधारण है प्रियतम की मधुर पुकार की ॥
वस्तुतः वह पुकार भी प्रीति हेतु है । क्योंकि प्रीति सँग से प्रियतम हुए हिय से प्रीति का स्मरण है यह रस । और यहीं रव प्रीति की सम्पूर्णता श्यामा का अभीष्ट श्रवणेन्द्रिय सुख है । और यह स्पष्ट है ही कि अप्राकृत प्रेम में रसास्वादन सर्व अंगों से होता है । अतः केवल रव सँग प्रीति ही इस प्रतिध्वनि से खींची गई है । शेष थिरता अज्ञान की जड़ता बाहर है और रसजड़ता भीतर क्योंकि वेणु रसास्वदनार्थ थिर श्रवणेन्द्रिय उस जड़ता में शेष है शेष तत्व , यहाँ तक कि अभिव्यक्ति की सम्पूर्ण स्थिति खो चुकी है । इस श्रवण में पुकार सुन श्यामसुन्दर तक जाना केवल प्रीति के लिये सम्भव है क्योंकि वह श्यामासुन्दर के सुख का ही स्वरूप है । यहाँ थिर हो श्रवण करने के उनके ही सुख हेतु स्वभाव विस्मृत स्थिति रसजड़ता है क्योंकि प्रीति को प्रीति ने चुम्बकीय रूप से खेंच लिया है । तृषित ।। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।

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