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सघन वन उपवन , संगिनी जू

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सघन वन उपवन,वन में फूलनि दोउन।
इक सरस अति इक सहज मनमत्तन।।
कर सौं कर गरबाँहि डारि कंठन।
उर सों उर उरझि पग डगमग चलन।।
बिहरें बन बन कुंजन निकुंज बन ठन।
भ्रमत इत उत तन तमाल मन लतन सम उल्झन।।
झुकत झूलत परस्पर नृत्तत कमलिनी कमलन।
गावत गीत मल्हार उछंग उछार रस रंग फूलेलन।।
खेलत रासरंग होरि नित नव नवोत्सव अनंग।
झनक ठनक किंकणि कंकनि नूपरूण लसंत।।
मधुर मधुर सुर मुरलिका बीणा कूक कोकिल मयूरन।
ताल मृदंग चाल ठुमुक थप धाप नव नवल सुगतिन।।
महक सुंदर छब सलोने लोचन कटाक्ष दृगन।
डफ डफ ढप ढप चूनर पीताम्बर झगा लहंगा सरकन।।
इक कर छुरावत दूजो थमावै उर धरत नाभि बावली बिच बिच नयन मीन मन।
तृषित चकोर चंद बिच मोर भरि भरि सुराहि अधर धरन।।
खन खन चारि चूरि टूटी मोतिन लर सेज सजन।
प्यारि अति भोरि छुरावत प्यारे ना छाड़त ललन।।
निरखि निरखि कौतिक सखिन संग नव विलसन।
न्यून नयन नूतन तिरछि छबीली चितवन।।
पुष्पवन अति सुंदर सजिहो सजीलो स्याम रस ललचन।।
नयनन सौं नयन मिलाय ना अघाए तीक्ष्ण सैंन चलंत।
ढाँप लियो मुख दोऊ कर सौं नागरि चतुर निचोल ढपंत।।
निरखि रूप रस रंग सौं भींजी सखिन स्याम स्यामहिं दै आसिस रसरंगन।
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी  !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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