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वास्तविक प्रेम , संगिनी जु

वास्तविक प्रेम

जी !!युगल प्रेम ही*वास्तविक प्रेम*है जिसमें प्रेम ही प्रेम की चाहत में प्रेम हुआ प्रेम दे भी रहा और प्रेम पा भी रहा अर्थात ऐसा प्रेम जो प्रेम को जी रहा डूब कर।वैसा प्रेम जैसा ब्रह्मांड में आभासमात्र भी कहीं नहीं जैसा सम्पूर्ण विश्व को प्रेम संदेस तो दे रहा पर वैसा हो सके ऐसा सम्भव भी नहीं।
वजह ??वजह एक ही और वो वजह है प्रेम की धरोहर प्रेम में कभी ना समाप्त होने वाली*व्याकुलता*।
जी !प्रेम की नींव है यही व्याकुलता जो युगों से युगल प्रेम को सींच भी रही और प्रतिपल गाढ़तम स्वरूप में नितनव संजो भी रही।
प्रेम कभी पूर्ण नहीं हो सकता उसके पीछे वजह यह व्याकुलता ही है और यह व्याकुलता का एक अत्यधिक गहन स्वरूप कि यह कोई स्वसुख की अपेक्षा नहीं रखता अन्यथा इसमें छुपा तत्सुख भाव जो अभिन्न युगल से भी अभिन्नत्व व्याकुलता को जन्म देता।
सरल शब्दों में कहा जाए तो एक माँ का प्रेम अपने बालक के लिए व्याकुलता की धरोहर पर सींचित होता।बालक जन्म लेने से पूर्व भी और पश्चात भी सदैव माँ की व्याकुलता ही गहराता रहता उसमें तत्सुख भाव होने के कारण।
विशुद्ध प्रेम जहाँ माँ यशोदा सदैव व्याकुल ही रहीं।कृष्ण जन्म पूर्व की व्याकुलता उन्हें जन्म उपरान्त और भी अधिक उत्कण्ठित तब करती जब बाल लीलाएँ करते श्यामसुंदर मईया की नजर से क्षणभर भी ओझल होते और यह उनका प्रेम गहराता चला गया जब बाल कृष्ण कभी गोपियों के प्रेमपाश में बँधते या सखाओं के प्रेमबंधन में बँधे माँ का आँचल छोड़ भाग छूटते।यही नहीं कान्हा की नटखट हरकतों से माँ जितना चिंतित होतीं उतना ही आनंदित भी होतीं और भय से भी अत्यधिक व्याकुल हो जातीं जब एक के बाद एक आपदा अदैविक शक्तियों की आ मनमोहन को घेरतीं।विचलित मैया का व्याकुल प्रेम तब और भी गहरा गया जब अकरूर आकर उन्हें वहाँ से ले गए।माँ के लिए चिंता का विषय तो था ही पर इसमें उनका कोई स्वार्थ ना था जिसकी छाप फिर भी कहीं ना कहीं देवकी मैया के प्रेम में थी ही।माँ  देवकी व्याकुल थीं कि कृष्ण का जन्म होगा तो कंस के अत्याचार का अंत होगा और जब कृष्ण जन्म हुआ तब भी व्याकुल थीं कि उन्हें पुत्रवियोग सहना पड़ा।कृष्ण जब उनके पास लौट आए तब तक वे विचलित ही थीं परन्तु उन्होंने अपनी व्याकुलता का अंत उन सात सन्तानों को जीवित लौटाने में पा लिए जिनके लिए वे शायद कृष्ण से भी अधिक व्याकुल थीं।वहीं दूसरी ओर माँ यशोदा कान्हा के जाने के पहले और बाद में भी जीवन भर व्याकुल रहीं तो केवल कृष्ण के लिए ही।माँ यशोदा का प्रेम व्याकुल ही रहा सदा।
यही व्याकुल प्रेम किया गोपियों ने श्यामसुंदर से।वो जितना कृष्ण से प्रेम करतीं उतना व्याकुल हो उठतीं और प्रेम देने के लिए।लेने के लिए नहीं।उनको कृष्ण को सुखी निरखने में जो आनंद मिलता था शायद वो अपने गोपपतियों को सुख देने में नहीं था।गोपियाँ सदैव ताक में रहतीं कब मोहन घर से वन और वन से घर आते दिखें और वे उन्हें उनकी वंशी की मधुरता संध्या की धवलता और डगमग डगमग चंचलता का दरस कर उन्हीं के सौंदर्य रस का पान अपने नेत्रों से उन्हीं को करवा सकें।
हाँ !यही तो वे त्रिभंगीलाल मदनमोहन चाहते ना कि उनकी सौंदर्यता को निरख सखियाँ उन पर न्यौछावर जातीं उन्हें रसमुग्ध करें और तत्सुख भावभावित गोपियाँ व्याकुलतावश अपने घर परिवार का लालन पोषण छोड़ कृष्ण की वेणु माधुरी के रंग की माधुर्यता का बाना औढ़ लोकलाज का कृत्रिम पहरावा उतार फैंकती और जब कृष्ण उनसे अर्धरात्रि रासमंडल आने का प्रयोजन पूछते तो स्पष्ट शब्दों में कटाक्षवत् बड़ी चंचलता से उत्तर देतीं*तुम जो चाहते प्रियतम*।बस !यही दर्शाता उनके प्रेम की विशुद्ध व्याकुलता को।
अहा !यही तो वो व्याकुलता है जो युगल के प्रेम का सींचन करती ही रहती।कभी ना थमने वाली गूढ़तम व्याकुलता जो श्यामा श्यामसुंदर के व्याकुल प्रेम की भूमि है जहाँ सींचन करती सहचरी स्वयं की व्याकुलता का दम भरती और प्रियालाल जु को एकरस कर उन्हें निरखने को व्याकुल ही रहती।पर यहाँ भी सखी के प्रेम की व्याकुलता युगल को एक कर कुछ सुख पाती और अनंत सुख देती क्योंकि यहाँ भी तत्सुख भावापन सखियों की व्याकुलता का सारभूत प्रयोजन युगल को एक करना है।
इतना सब कहने के बाद श्रीयुगल के अति व्याकुल तत्सुख प्रेम की बात तो क्या कहूँ !उनकी व्याकुलता तो परस्पर सुख हेतु ही अनवरत व्याकुल ही रहती।अद्भुत प्रेम की अद्भुत पिपासित अंतहीन उत्कण्ठित अद्भुत अनवरत असीम वास्तविक व्याकुलता.......
क्योंकि प्रेम की वास्तविक व्याकुलता की चाहत नहीं जो पाकर इसका अंत हो सके अपितु तृषा ही है जो उतरोतर व्याकुल ही हो रही और देने के लिए !और और और
जयजय श्रीयुगल !! संगिनी ।।

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