श्री राधिका आराध्या और आराधिका
अनन्त काल से श्री किशोरी एक रहस्य एक पहेली बनी हुयीं हैं ॥हम सब निज निज भाव दृष्टि अनुसार श्री प्रिया जू के स्वरूप को जानते हैं ॥ श्री प्रिया प्रेम की परिपूर्णतम् चरमोत्कर्षतम् सर्वोत्कृष्टतम् अवस्था हैं । वे किसी अवस्था पर नहीं वरन वे ही परम अवस्था हैं ॥ उनका प्रेम सबसे विलक्षण है ॥ उनके हृदय को पाये बिना उनके परम विचित्र प्रेम को समझा नहीं जा सकता ॥ समस्त प्रकार के दिव्य प्रेमों से भी परे है श्री राधिका का अद्वितीय प्रेम ॥वास्तव में उन जैसी कोई सेविका ही संभव नहीं है ॥ वे स्वयं सेवा की मूल उद्गम तथा आकर हैं ॥वे ही सेवा के चरम शिखर पर विराजमान स्वयं मूर्तिवंत सेवा हैं ॥ सेवा की पराकाष्ठा इसी से परिलक्षित हो जाती है कि सेविका भावना स्वयं में रखते हुये भी अर्थात् स्वयं को सेविका जानते हुये भी वे प्रियतम सुखार्थ स्वामिनी पद स्वीकार किये हुये हैं ॥प्रियतम के सुख की मूर्ति हैं वे ॥ कृष्ण कामनाकल्पतरू हैं वे ॥तो जब प्रियतम को उन्हें स्वामिनी रूप सेवा करने में रस मिलता है तो उन्हें वही स्वरूप स्वीकार है ॥तनिक चिंतन करें तो कि स्वामी को सुख देने हित सेविका पद को विस्मृत की हैं वे ॥संसार में इसका अर्थ विपरीत निकलेगा ॥कि सेविका पद छोड़ स्वामिनी हो जाना त्याग कहाँ पर ये दिव्य प्रेम राज्य की रीत तनिक विपरीत है ॥देखिये तो जरा कि स्वामिनी होना किसकी है ! ॥मृत्यु लोक से लेकर समस्त भुवनों के जो अधीश्वर हैं ॥अनन्त कोटि ब्रहमाण्ड नायक सर्वभूतात्मा श्री कृष्ण की ॥ श्री राधिका के अतरिक्त कोई भी अन्य स्थिती उनकी स्वामिनी होने को कभी तैयार ही नहीं होगी ॥ नहीं समझें तो देखिये समस्त अवतारों में समस्त दिव्य लोकों में जितने भी लीला विग्रह है क्या कहीं भी कोई ऐसा स्वरूप है जहाँ श्री भगवान दास हो तथा कोई उनका स्वामी या स्वामिनी ! कोई कर ही नहीं सकता ऐसा ॥भगवान् सब कुछ रूप स्वीकार परंतु सेवक रूप नहीं कहीं भी ॥शिशु बालक सखा माता पिता भ्राता मित्र संबंधी गुरु सब कुछ हो जाते वे परंतु जो उनके हृदय में सेवा की अनन्त प्यास है वो कभी कहीं नहीं बुझती ॥ उनकी प्यास है ऐश्वर्य विस्मृति ॥समस्त चेतन सत्ता में कहीं कोई ऐसा नहीं जो उनकी यह प्यास बुझा सके ॥ कितना भी प्रगाढ़ संबंध क्यों न हो उनसे परंतु उनके हृदय की प्यास कोई नहीं बुझा सकता ॥ नारायण रूप में भी श्री लक्ष्मी ही चरण चाप रहीं हैं ॥द्वारिका लीला में भी रुक्मिणी जी भार्या हैं तो सेविका रूप ही होना चाहतीं हैं ॥तो कृष्ण हृदय की प्यास बुझाने की सामर्थ्य किसमें है ॥जो पूर्णतः स्व सुख से रहित होगा अन्यथा सृष्टि में कौन है जो श्री कृष्ण से सेवा करवाने को प्रस्तुत हो जाये ॥ स्व होने पर स्वहित की भावना रहती ही है चाहें कितनी सूक्ष्म ही क्यों न हो ॥और लेशमात्र भी स्व हित स्व सुख की गंध शेष होगी तो कौन है जो अनन्त कोटि ब्रह्मांड नायक से सेवा करवा कर पाप का भागी बनना चाहेगा ॥कोई कर ही नहीं सकता ऐसा केवल श्री राधिका के अतरिक्त ॥ उनके प्रेम की महिमा अनन्त है ॥प्रियतम के हृदय की इस अपार सेवा लालसा को पूर्ण करने हित वे नित्य स्वामिनी पद स्वीकार किये हुये हैं कि प्यारे को सुख हो रहा बस ॥श्री कृष्ण के हृदय की अथाह प्यास है ऐश्वर्य विस्मृति , जो केवल दास हो सेवा करने , स्वामिनी के करों की कठपुतली बन डोलने में ही संभव हो पाती है ॥ एक उदाहरण लें कि कोई पूरी पृथ्वी का सम्राट होवे और उसके मन में इस ऐश्वर्य का त्याग कर सेवा करने की लालसा जगे तो भला कौन होगा उसके राज्य में जो सम्राट से सेवा लेगा ॥सबको यही भावना रहेगी कि ये सम्राट हैं ॥अर्थात् सम्राट होकर भी अतृप्त ॥क्योंकि प्यास ऐश्वर्य से मुक्ति की है ॥ अब समझिए कि श्री किशोरी का त्याग किस उच्चता पर अवस्थित है ॥ वे मानती स्वयं को दासी हैं परंतु प्रियतम के सुखार्थ सदा स्वामिनी रहतीं हैं ॥ "हाँ प्यारे जिसमें तुम्हें सुख हो " ॥ समस्त भाव भगवान् से ही उत्पन्न होते है और वहीं जाकर पूर्ण भी होते हैं ॥वे ही समस्त भावों के परिपूर्णतम् स्वरूप हैं ॥तो सेवा भावना भी वहीं पूर्णता पाती है ॥ परंतु इस सेवा भावना की संपूर्ण पूर्णता संपूर्ण रस श्री किशोरी की सेवा में ही उन्हें प्राप्त होते हैं ॥ श्री श्यामा के प्रेम की विलक्षणता के कारण श्याम हृदय संपूर्ण अनावृत है उनके समक्ष ॥ श्री किशोरी ही सेवा का आदर्शतम् स्वरूप हैं ॥ वे हैं आराधिका परंतु आराध्य के सुख हित आराध्या पद स्वीकार की हैं ॥इससे बढकर त्याग कहीं दूसरा संभव ही नहीं ॥स्वहित की समस्त संभावनाओं कामनाओं वृत्तियों से परे है उनका चरम त्याग ॥ वे हैं आराध्या परंतु उनकी आराधना सर्व विलक्षण परम अद्भुत परम अद्वितीय तथा अनन्य है ॥
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