प्रियमन-भाविनी ममस्वामिनी
वंशी ध्वनि अनंत अनंत युगों से जैसे हिय में नाद बन समाई है।सुनती हूँ और तलाशती भी हूँ
कहाँ से किधर से निर्झरित यह मधुरिम ध्वनि सुनाई आती पर ना जान पाई सखी और अब यह नाद बन रूह से उठती माधुर्य रसतरंगों से और भी गहन सुनाई आने लगी।वेणु रव जैसे रग रग से उठती सुगंधी बन पल पल झकझोरता कि आखिर क्या है यह और क्यों रह रह कर भावमकरंद बन झरता रहता।
यहाँ वहाँ कहाँ कहाँ रूह तड़पी और भागी सखी री इस नाद को सुनने पर ना जान पाई री।कैसे जान पाती यह मृगी जो मृगतृष्णा सी यहाँ वहाँ कूदती रही पर जानी ना यह भेद।
तब सखी री किन्हीं युगल रसिक सिरमौर भावभावित उछाल तरंगों ने आ झकझोरा और उन नादतरंगों में बहती सरगम का पता बताया।
जानती थी कि यह मधुर स्वरतरंगिनी उन ललितत्रिभंगी के अधरों की छुअन से बहती हुई आई है तो अन्यत्र तलाशती एक पल के लिए भीतर उतर बैठी तब जानी यह रस श्यामसुंदर के अधरों से होते हुए हिय में आ समाया है और तब सखी री तब से अब तक इन रसतरंगों को भाव से संजोती एक रूप देने का प्रयास मात्र करती इन्हें निहारने लगी।
सखी री यह रसलहरियाँ सच में अति रूपवान हुईं भावों के अनुरूप एक अति सुंदर सुकोमल छवि का दर्शन कराने लगीं जैसे ये कब से वेणु तड़प रही थी कि उस रूपवान सौंदर्य की प्रतिमूर्ति को निहार सकूँ जिनके लिए ये व्याकुल मेरे हिय में घर कर गई थीं पिपासित वंशी ध्वनि रूप।
तब सखी री ना केवल सुना अन्यथा देखा इन वेणु की ध्वनियों को जो एक पुकार के साथ साथ एक अति प्रिय छवि में विलीन होतीं और जैसे वहीं अपनी पूर्णता का एहसासा भी करतीं।
हाँ सखी !आ उन भाव लहरियों से उभरती उस रसछवि को अभिन्न निहारें-
युगल चरण से उजागर होती नखों के सौंदर्य में दामिनी को बाँधे एक एक चरण चिन्ह को दर्शाती यह छवि उन गहराईयों में ले जाती जहाँ पनपता ऐसा प्रेम सखी जो परस्पर सुखहेतु अधरों से हृदय और हृदय से अधरों में सिमटता।सखी वो प्रेम जहाँ नयन और हृदय ही परस्पर स्पर्श पाते और कभी ना अघाते परस्पर प्रेम से।
सखी री तन्मयता से गहराती उस वंशी ध्वनि से ऊपर प्रकाशमान होती वो छवि जिनके चरणों तले अलता ऊपर जावक नूपुर पायल और फिर नीली साड़ी तले सुकृश कटिबद्ध कटिदेश और महासौंदर्यसार नितम्बप्रदेस और उस पर लहलहाती नीली चुनरी।
सखी री उस चुनरी को पकड़े नरम सुकोमल कर कमल जिनकी मेहंदी की महक वेणु रव सी जो रगों में समाई और करों की अति सुकोमल कमल पुष्प सम करागुंलियाँ जिन पर एक एक पर अति सुंदर नगजटित अंगुठियाँ सुशोभित हैं।
सखी री उस नीली चुनरी की झलकन ढुरकन से झाँकता सुनहरी उदर जिसमें अति ही सुंदर सलोनी झलकती नाभि जैसे कोई मीन बावली के रस में फंसने को उतावली हो ऐसा उसका आकार सखी री।
सखी कहीं कहीं रूपलावण्य का दर्शन करातीं सुगोल कोमल लम्बी चार चूड़ीयुक्त भुजाएँ जिनमें विशाल वक्ष् सुकुमार व्याकुल तो समाए पर रसस्कित तृषातुर कभी छूटना ही ना चाहे।
सखी अपने आँचल से वे बार बार ढाँपने की नाकाम कोशिश करतीं हुईं सी अपनी लाल कंचुकी को जिससे रत्न-चूड़ावलि एवं रत्नकेयूर की शोभा इधर-उधर प्रसारित हो रही है।
सखी री लाल सुभग सुंदर कंचुकी के आवरण तले उभरे हुए कुचयुगल जो अति सुडौल एवं रसमय लावण्ययुक्त अमृतस्वरूप हैं। माधुर्य रस की मूर्ति ही हैं तथा वे पीन पृथुल तथा उन्नत हैं। उनके शंखवत् सुन्दर कण्ठ में नवीन कांचनमय निष्कमाला की मणि छटा विस्तृत हो रही है तथा मनोज्ञ नव-कुचयुगल-स्वर्णिम कलिकावत् प्याले नयनों में जैसे सुराहीवत् मधु उंडेलते रसातुर बना रहे हैं।
सखी चिबुक पर स्याम मोतिक बिम्ब की सुंदरता व आकर्षक गुलालीयुक्त कपोलों के मध्य लाल सुरख रसभरे मंद मंद मुस्काते अधर जैसे जीवनदायिनी श्यामसुंदर की ऐसी प्रेम प्रतिमा सी।
सखी लाल बिम्बाफल जैसे अधरों के मध्य कांतियुक्त पके अनार सी दंतावली अति मनमोहक लग रही।
माधुर्य रस से पूर्ण लज्जायुक्त मृदुल हास्ययुक्त विशाल नेत्र श्याम कज्जल से चंचल हो रहे हैं और भ्रुकुटि विलास से कामदेव के बाणों को पराजित करतीं वे अति सौंदर्यवान हैं।
सखी सुन्दर नासिका में स्वर्ण रक्ताभ उज्ज्वल मुक्ता धारण किए सुन्दर रत्न कर्णफूल झुलातीं अति प्रिय लग रही हैं।
सखी उनके ललाट पर चमकती चंद्रिका जो चंद्रशेखर को भी प्रकाशमान करती है और उससे झलकती श्यामल लटें जो कई कई नागिनों सी लहलहाती सुंदर दंस सी माधुर्य के जाल बुनती हैं और सखी उन सुंदर सुकोमल गौर वदनी रूप लावण्य से भरपूर श्याम मोहिनी प्रिया जु की भुजंग सम लटकती बहकती वेणी जो अनंत प्रभाओं को लज्जित करते पुष्पों से सुशोभित है जिसमें श्यामसुंदर बेझिजक बंधे जाने को सदैव आतुर रहते हैं वह कटि से बंधी नितम्बों से लहकती नूपुरों को तान देती संगीतमय सुचारु है।
सखी ऐसी सुकुमारी मधुमती श्यामा प्यारी जु मधुर मुस्कान के जादू में रसलिप्त श्यामसुंदर एकचित्त खड़े वंशी निनाद में स्वयं तो खोए हैं और जैसे संजो रहे है राग रंगिनियों को उनके चरणनखों की सेवा हेतु जिन्हें वे स्वयं भी हृदय से लगा चापते रहना चाहते।
कब मैं प्रियसंगिनी श्यामा जु के अति मधुकर चंचल चपल चरणों को निरख उनको सेवासुख प्रदान कर श्यामसुंदर को रिझाऊंगी......
जयजय श्यामाश्याम !!
जयजय श्रीराधे राधे !!
Comments
Post a Comment