रसधाम श्रीवृन्दावन , संगिनी जु
श्रीहरिदास !!
श्रीवृंदावन को रसधाम कहना गलत ना होगा अगर यह स्पष्ट कर सकी कि यहाँ प्रकृति स्वयं अप्राकृत रसरूप सदैव नव नव क्रीड़ायुक्त प्रतिपल नव दुल्हन सी सज धज कर प्रफुल्लित हुई सेवारत रहती है।सेवारत इसलिए कि यहाँ प्रकृति श्रृंगार स्वयं के लिए नहीं अपितु प्रेमराज्य में अभूतपूर्व अप्राकृत प्रेमवल्लरियों के हेतु करती है।
प्रेमराज्य वह जहाँ प्रेम ऐसी पराकाष्ठा
में बंधा है कि स्वयं भगवान अपनी भगवत्ता को त्याग रसरूप मूर्तिमान प्रेमजाल में स्वतः बंध जाते हैं।कहने को तो जहाँ स्वयं प्रेम देव श्यामसुंदर हों वहाँ प्रेम धाम का उद्भव सहज ही है परन्तु फिर तो श्यामसुंदर जगत के कण कण में समाए हैं पर प्रत्येक कण से पराग निरझर्न तो सहज नहीं होता ना।तो वास्तव में प्रेम राज्य है कहाँ?
प्रेमराज्य जहाँ प्रत्येक कण पराग कण है और प्रत्येक पराग कण से सींचित होता प्रेम मकरंद बन सर्वत्र झरता ही रहता है।श्यामसुंदर ब्रज छोड़ मथुरा गए द्वारिका कुरूक्षेत्र गए।भगवान ही सर्वव्यापक सर्वातीत रस बनकर कण कण में हैं और नारद नारायण और उद्धव संदेस में भी वही हैं तो फिर कहाँ वे ऐसे प्रेमबंधन में बंधे खिंचे चले आते हैं जहाँ माँ यशोदा का स्वप्न सत्यरूप और सखाओं का अपनत्व उन्हें खींच लाता है।
मिलने को तो श्यामसुंदर कहाँ गोपियों व श्यामा जु से नहीं मिलते लेकिन कहाँ वे उनसे ऐसे मिलते हैं जहाँ वे रसिक शिरोमणि अपनी तमाम विद्वत्ता भूलकर उनकी चरणरज को मस्तक पर धर लेते हैं।
यही वृंदावन धाम कहने को तो वहाँ उपस्थित है जहाँ प्रेम से व्याकुल उत्कण्ठित हृदय प्रेम व रस से सराबोर हो प्रियतम श्यामसुंदर को पुकारता है।जहाँ श्यामसुंदर भगवान नहीं अपितु रस लालायित प्रेमास्पद प्रेम की डोर से खिंचे चले आते हैं।जहाँ उसका हृदय प्रदेस ही धाम वृंदावन हो चुका है और उसके नेत्रों से बहती अनवरत रसधार ही यमुना हो चुकी है और जहाँ प्रेम प्रेमी प्रेमास्पद एकरस में बंधे एकरूप भी होते हैं।परन्तु फिर भी श्रीवृंदावन धाम ही रसधाम क्यों?
सहज ही श्रीवृंदावन धाम ही रसधाम है।यह वह पवित्र स्थल है जिसे गोपियों का मन कहा गया है।जहाँ श्यामसुंदर को गोपियों ने वह प्रेम दिया है जो भगवान श्यामसुंदर को द्वारिका अधिपति होकर रूकमिणी सत्यभामा या माता देवकी ना दे सकीं।यहाँ सखियों ने युगल से वैसा स्नेह किया जिसमें लेशमात्र भी स्वसुख की सुखलालसा भी नहीं।
जी !श्रीधाम वृंदावन जहां श्यामसुंदर को अनंतानंत विधि विधानों से पूजा नहीं जाता अपितु उन रससार श्यामसुंदर को रस से अह्लादित किया जाता है जिसके बल पर वे रसिकवर इतने प्रेममय व आकर्षक हैं कि प्रत्येक भक्त उनके प्रेमपाश में बंध कर धाम निवास चाहता है।
श्रीधाम वृंदावन श्यामसुंदर का हृदय है जिसे उन्होंने पग पग पर न्यौछावर कर दिया है उसी अति गहन रससिन्धु रस से सराबोर रसभाव तरंगों के उन्मादित व उछल्लित चरणनूपुरों की झन्कारों पर जिन्हें सुन वे जीवंत होते व जिनके अति संकीर्णतम स्पर्श के लिए भी व्याकुल हो उठते और फिर मृगमारिचिका की भांति सदैव उसमें डूबे हुए भी उसे ही खोजते भी रहते।
श्रीधाम वृंदावन जहां के कण कण से पुष्पों की महक उठती और लता लता प्रेमजाल बनी तमाल तमाल से सदैव लिपटी रहती।जहाँ प्रत्येक पुष्प खिलता और मकरंद झरता सदैव उन सुंदर गौर श्यामल चरणों में जो यहां की रसधरा पर छलकता थिरकता व स्पंदित होता निर्बाधित।जहाँ ऋतु श्रृंगार करती प्रतिपल नव रससंचार हेतु।जहाँ की पवन सदैव रसुनूकूलित बहती और जहाँ यमुना जी का जल सदा नव नव कमलदलों से सुसज्जित लहलहाता उछल उछल कर तो कभी मंद मंद आमंत्रित करता रहता उन युगल हंस हंसिनी को ताकि उनके चरणनख स्पर्श मात्र से तरंगायित हो रसरूप होता रहा।जहाँ कोकिल मयूर सदैव गुनगुनाते नाचते रहते उन युगलरमणियों की किंकणी कंकनों की मधुर मदमस्त कर देने वाली मधुर रसध्वनियों पर।जहाँ का कण कण मकरंद बन रसिक भ्रमरों को उत्साहित करता नितनव श्रृंगार रस से लिप्त धमनियों पर थिरकने को।अद्भुत रसधाम वृंदावन जहाँ श्यामा जु सदा रसरमणी बन सहज रसप्लावित श्यामसुंदर को रमण कराती रहतीं।यही रसधाम श्रीवृंदावन जहाँ मिलिततनु युगल सदैव मिलन को उतावले होते और यहाँ ही श्यामा जु निभृत निकुजों में वास करती प्रियतम श्यामसुंदर संग और सदा इन्हीं गह्वर वन की सघन कुंजों में रसस्कित युगल विहरन करते हिंडोरणा झूलते तो कभी पासा खेलते मदनमत रहते सदा।अन्यंत्र नहीं।कहीं नहीं।कभी नहीं।
जयजय श्रीयुगल जयजय वृंदावन !!
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